Book Title: Yogashastram Part_2
Author(s): Hemchandracharya, Jambuvijay
Publisher: Jain Sahitya Vikas Mandal

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Page 623
________________ स्वोपज्ञ वृत्तिविभूषितं योगशास्त्रम् चतुर्थः प्रकाशः श्लोकः १०५ ॥ ९३४ ॥ ॥९३४॥ लोक इय मुत्तवृत्तमाएसओ दपुक्खरिणिअंतरे दो दो। रइकरगनगा बत्तीसमेसु पुव्वं व जिणभवणा ॥ १९ ॥ वंदंतनमंतअभित्थुगुंतपूर्यतइंतजंतेहिं । खयरसुरेहिं अरहिआ पुन्नतिहिमहामहकरेहिं ॥ २० ॥ तह जोयणसहसुच्चा विक्खंभायामसमदससहस्सा। झल्लरिनिभा रइकरा रयणमया विदिसि दीवंतो ॥ २१ ॥ तेसु चउण्ह दिसासुं जोयणलक्खम्मि जंबुदीवसमा । अट्ठ रायहाणी सकेसाणग्गमहिसीणं ॥ २२ ॥ विमलमणिसालवलयाण ताण मज्झे पुढो जिणाययणा । जिणपडिमा पव्वमिवेह अणुवमा परमरमणिज्जा ॥ २३ ॥ १ इह-हे. मु.॥ २ पूइंतइंत०-संपू.॥ * इति सूत्रोक्तादेशतो द्विपुष्करिण्यन्तरे द्वौ द्वौ। रतिकरकनगी द्वात्रिंशत् एषु पूर्ववजिनभवनानि ॥ १९ ।। वन्दमान-नमदभिस्तुवत्-पूजयद्-आगच्छद्-गच्छद्भिः। खचरसुरैः अरहिताः पुण्यतिथी महामहकरैः ।। २० ।। तथा योजनसहस्रोच्चा विष्कम्भायामसमदशसहस्राः। झल्लरीनिभा रतिकरा रत्नमया विदिक्षु द्वीपान्तः ॥ २१ ॥ तेषां चतुर्णा दिक्षु योजनलक्षे जम्बूद्वीपसमाः। अष्टाष्ट राजधान्यः शक्रेशानाग्रमहिषीणाम् ॥२२॥ विमलमणिशालवलयानां तासां मध्ये पृथक् जिनायतनानि। जिनप्रतिमाः पूर्वमिवेह अनुपमाः परमरमणीयाः ॥२३॥ भावनायां तिर्यग्लोकस्वरूपम् 10 Jain Education Inte For Private & Personal Use Only X w.jainelibrary.org

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