Book Title: Vignaptitriveni
Author(s): Jinvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 61
________________ एक दूसरे क्षेत्रपाल का आराधन कर सब जगह के खरतर संघों की इस विषय में अनुमति मंगवाई और फिर सब साधु इकट्ठे हो कर भणसोल नामक गाँव में आये। वहां पर श्रीजिनराजसरि ने अपने एक शिष्य को, वाचक शीलचंद्र के पास अध्ययन करने के लिये रक्खा हुआ था जो सकल-सिद्धान्तों का अच्छा वेत्ता हो गया था। यह शिष्य *भणशाली गोत्रयि था। इस का मूल नाम भादो था। इस ने सं. १४६१ में दीक्षा ग्रहण की थी। इस समय इस की कुल उम्र २५ वर्ष की थी। आगन्तु साधुओं ने इसे आचार्यपद के योग्य समझ कर, सागरचंद्राचार्य ने सात भकारों का मिलान कर, सं. १४७५ में आचार्यपद दिया। सात भकार इस प्रकार है १ भाणसोलनगर, २ भणसालि गोत्र, ३ भादो मूल नाम, ४ भरणी नक्षत्र, ५ भद्राकरण, ६ भट्टारकपद और ७ जिनभद्र सरि (नया) नाम । आचार्य पद का महोत्सव भणसाली सा० नाल्हा ने सवा लाख रुपये खर्च कर किया था । इन्हों ने अपने आचार्यत्व काल में आबू, गिरनार, जेसलमेर आदि अनेक स्थलों में, अपने उपदेश से, जिनमंदिर, जिन प्रतिमा और प्रासाद-प्रतिष्ठा आदि अनेक धर्मकृत्य करवाये थे । भावप्रभ और कीर्तिरत्न नाम के विद्वानों को आचार्य पद्वी प्रदान की थी । अनेक जगह पुस्तक-भाण्डार नियत किये थे । इस प्रकार बहुत कुछ शासनोन्नति कर सं. १५१४। के मार्गशिर्ष वदि ९ मी के * पुराणी पट्टावालि में, छाजहड गोत्र लिखा है और पिताका नाम सा. धाणिक तथा माता का नाम घेतलदे लिखा है। इस में इन के जन्म की तारिख सं. १४५९ चैत्र वदि ६ और आद्रा नक्षत्र दी हुई है । यथा " सं० १४६९ चैत्र वदि ६ आद्रायां छाजहडान्वय सा० धाणिग भार्या घेतलदे कुक्षिभुवां--" । बाबू पूर्णचंद्रजी नाहार एम्, ए;" जैनलेखसंग्रह " नाम की एक पुस्तक छपवा रहे हैं । इस में १२९ नंबर वाले लेख में-जो धातुमय जिनप्रतिमा ऊपर से लिया गया है-लिखा है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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