Book Title: Vignaptitriveni
Author(s): Jinvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha
View full book text
________________
O
परिशिक संख्या २। देदाणा रिसहजिण आदिनाह ऊपल्लियासहि ॥ वीरमगामिहिं वीस्वरु बीजउ संतिजिणिंद ।
अचिसनंदण भो जुबइ बंदह लवणिमकंदः ॥ १७ ॥ मंडलि सीतापुर वरि वीर वग्धाइ सिरिआदिल धीर । पाटरियई पहु पास जु संति गोरइइं सिरि रिसह नमति ॥ १८ ॥ संतिजिणेसर डहियरवाडइ संति पास दुइ झंझूवाडइ । हांसलपुरवरि सीतलदेव सारउं नितु नितु हउं तमु सेव ॥ १९ ॥ जे मई चउद सत्यासिय वरसिंहिं जिणवर वंदिय गरुयइ हरसिहि । नितु नितु ते मन भाविहिं वंदउं सुख समाधिहिं ता चिरु नंदउं ॥२०॥ इय दोसनासण पयडसासण सुह पयासण केविया । बहुठाणसंठिय देवजिणवह भावभत्तिहिं सेविया । ते आज चहुविअ संघ मंगल रंग दाण समग्गला। मह दिंतु निव्वुइ सुजइसायर बोधिलाभ समुज्जला ॥ २१ ॥
॥ इतिश्रीचैत्यपरिपाटी समाप्ता । ॥ कृतिरियं खरतरश्रीजयसागरोपाध्यायानाम् ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 175 176 177 178 179 180