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९ श्रीअचल भ्राता । १० श्रीमेतार्य स्वामी ।
११ श्रीप्रभास स्वामी । यह विधि प्रायः श्रीज्ञानविमल सूरि कृत ११ गणधर देववंदनके अनुसार है । फरक इतना है कि उन्होंने चार चार थुइयाँ रक्खी हैं और यहाँ संक्षेपार्थ एक एक ही थुई कही है। परंतु यदि किसीकी भावना चार चार थईसेही देववंदन करनेकी होवे तो वो बड़ी खुशीसे कर सकता है और उसके लिये इतना अधिक समझ लेनाभी योग्य है।
चैत्यवंदन० किचि० नमुत्थुणं० अरिहंतचेइयाणं० अन्नत्थ. एक नवकारका काउस्सम्गा । थूई पढ़कर लोगस्स० सव्व लोए ० अरिहंतचेइयाणं० अन्नत्थ. एक नवकारका काउस्सम्ग दूसरी थूई । पीछे पुक्खरवरदी० सुअस्स भगवओ० अन्नत्थ० एक नवकारका काउम्सम्ग तीसरी थई । पीछे सिद्धाणं बुद्धाणं० वेयावच्चगराणं ० अन्नत्थ० एक नवकारका काउस्सग चौथी थूई । पीछे नमुत्थुणं० जावंति० जावंत. नमोर्हत्० स्तवन और जयवीयराय. पीछे श्रीगौतमस्वामिसर्वज्ञाय नमः" इत्यादि ।
चार थुईकी पूर्ति इस प्रकार करलेनी । प्रथम स्तुतिके स्थानमें काव्य और शेष तीन थुई श्रीज्ञान विमलसूरिजी वाली । सुभीतेके लिए चारों थूइयाँ लिखी जाती हैं।
सरनरेश्वर पजित पत्कजं, श्रतिपदेन समद्भवसंशयम् । जिनपवीर गिरा गतकल्मषं, गणधरं श्रुतरत्नधरं स्तुवे ॥ १ ॥
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