Book Title: Veer Ekadash Gandhar Puja
Author(s): Vijayvallabhsuri
Publisher: Granth Bhandar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2169 आत्मवल्लभ-ग्रंथसीरीज नं०४. वंदे श्रीवीरमानन्दम् । श्रीवीर एकादश गणधर पूजा योजकजैनाचार्य श्रीमद्विजयानंदसूरीधर-पट्टधर आचार्य श्रीमद्विजयवल्लभमूरिजी महाराज । सेठ प्रागजी धर्मसो पोरबंदर वाले, हाल बंबईनिवासीकी सहायतासे प्रकाशित प्रकाशकग्रंथ-भंडार, होराबाग, गिरगांव, बंबई. मूल्य आत्म सं. ३० सदुपयोग 3 वीर संवत २४५२ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेयोंको Printed by Chintamán Sakharam Deole, at the Bombay Vaibl Press, Servants of India Society's Home, Girgaon, Bombayir Pablished by Krishnalal Varma Propritor Granth Bhandar, Hirabag, Girgaon, Bombay. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झंझणके छ पुत्र थे जिनमें सबसे बडा चाहिड़ था। वाहड़ने संघके साथ जीरापल्ली ( आधुनिक नीरावला जो आबूके समीप है) की यात्रा की और अर्बुद (आपू) पर्वतकी भी यात्रा के। संघमें जितने मनुष्य थे सभीको द्रव्य, वस्त्र और पनि दिन और संघपतिकी पदवी प्राप्त की। तीर्थ स्थानोंमें बहुतसा धन व्यय किया । इसके दो पुत्र थे जिनमें बड़ेका नाम चंद्र और छोटेका नाम खेमराज था। ___ झंझणके दूसरे पुत्रका नाम बाहड़ था । इसने भी संघपति बनकर रैवतक पर्वत (गिरनार ) की यात्रा की, संघी लोगोंको द्रव्य, वस्त्र और घोड़ दिये । इसके भी दो पुत्र थे। बड़ेका नाम समुद्र (समधर) और छोटेका मंडन था। यही मंडन हमारे चरित्रनायक मंत्री मंडन है। ___ झंझणका तीसरा पुत्र देहड था । इसने भी संघपति बनकर अर्बद ( आब ) पर नेमिनाथकी यात्रा संघके साथ की । संघको किसी प्रकारका कष्ट न हो इसका यह बहुतही विचार रखता था । इसने राजा केशिदास, राजा हरिराज और राजा अमरदासको जो जंजीरोंमें पड़े थे परोपकारकी दृष्टिसे छुड़ाया । इनके सिवाय वराट, लूणार और चाहड़ नामके ब्राह्मणोंको भी बंधनसे छुड़ाया था। इसके धन्यरान नामक एक पुत्र था । इसका दूसरा नाम धनपति और धनद भी था । इसने भर्तृहरिशतकत्रय के समान -नीतिधनद, शृंगारधनद और वैराग्य धनद नामक तीन शतक बनाए थे। ग्रंथकी प्रशस्ति नीतिधनद के अंतमें दी है। इससे विदित होता है कि इसने नोतिधनद सबसे पीछे बनाया था । ये शतक काव्यमाला के १३ वें गुच्छकमें (मुंबई निर्णय सागर प्रेससे) प्रकाशित हो चुके हैं। नातिधनदके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतकी प्रशस्तिसे विदित होता है कि इसकी माताका नाम गंगादेवी था और इसने ये ग्रंथ * मंडपदुर्ग ( मांडू) में संवत् १४९० विक्रममें समाप्त किये थे। झंझणके चतुर्थ पुत्र का नाम पद्मसिंह था । इसने पार्श्वनाथ ( संमेद शिखर ) की यात्रा की और व्यापारसे बादशाहको प्रसन्न किया था । इसका भी पद संघपति लिखा है अतः इसने भी यह यात्रा संघके साथ ही की होगी। पाँचवें पुत्रका नाम “ संघपति आहलू " था । इसने मंगलपुर ( मांगरोल ) की यात्रा की और जीरापल्ली ( जीरावला ) में बड़े बड़े विशाल स्तंभ और ऊँचे दरवाजेवाला मंडप बनवाया और इसके लिए वितान ( चंदवा ) भी बनवाया । ___ झंझणका सबसे छोबा पुत्र पाहू था, इसने अपने गुरु जिनभद्रसरिके साथ अर्बुद ( आबू ) और जीरापल्ली (जीरावला )की यात्रा की थी। ये झंझणके छहों पुत्र आलमशाह (हुशंगगोरी ) के सचिव थे। ये बड़े समृद्धिशाली और यशस्वी थे । मंडनने अपने काव्यमंडनमें लिखा है कि " कोलाभक्ष राजाने जिन लोगोंको कैद कर लिया था उन्हें इन धर्मात्मा झंझण पुत्रोंने छुडाया ।" यह कोलाभक्ष कौन था ____ * मांडू उस समय मालवे की राजधानी होनेसे बड़ा ही संपत्तिशाली नगर था । अनेक कोटिपति और लक्षाधीश इस नगरको अलंकृत करते थे। कहते हैं कि इस शहरमें कोई भी गरीब जैन श्रावक नहीं था । कोई जैन गरीबीकी दशामें बाहरसे आता तो वहांके धनी जैन उसे एक एक रुपया देते थे । इन धनियोंकी संख्या इतनी अधिक थी कि वह दरिद्र उस एक एक रुपएसे ही सम्पतिशाली बन जाता था। पृष्ठ ८५. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) 1 विदित नहीं होता, शायद कोलाभक्षसे मतलब मुसलमानसे हो । संस्कृतमें “ कोल ” सूकरको कहते हैं और “अभक्ष" का अर्थ खानेवाला " ऐसा होता है । अतः कोलाभक्षका अर्थ सूअर न खानेवाला अर्थात् मुसलमान यह हो सकता है । यदि यह अनुमान ठीक है तो "कोलाभक्षनृप" का अर्थ आलमशाह ( हुशंग ) ही है । ये लोग हुशंगगोरीके मंत्री थे अतः उसके कैदियोंको उससे अर्ज कर छुडाया हो यह संभव भी है । ऊपर बतलाया जा चुका है कि मंडन, झंझणके दूसरे पुत्र बाहड़का छोटा लडका था । यह व्याकरण अलंकार संगीत तथा अन्य शास्त्रोंका बड़ा विद्वान् था । विद्वानों पर इसकी बहुत प्रीति थी । इसके यहाँ पंडितोंकी सभा होती थी जिसमें उत्तम कवि प्राकृतभाषा के विद्वान, न्याय वैशेषिक वेदांत सांख्य भाट्ट प्राभाकर तथा बौद्धमतके अद्वितीय विद्वान् उपस्थित होते थे । गणित भूगोल ज्योतिष वैद्यक साहित्य और संगीत शास्त्र के बड़े बड़े पंडित इसकी सभाको सुशोभित करते थे । यह विद्वानोंको बहुत सा धन वस्त्र और आभूषण बाँटा करता था । उत्तम उत्तम गायक गायिकाएँ और नर्तकियाँ इसके यहाँ आया करती थीं और इसकी संगीत शास्त्रमें अनुपम योग्यता देखकर अवाक् रह जाती थीं । उन्हें भी यह द्रव्य आदिसे संतुष्ट करता था । यह जैसा विद्वान् था वैसा हो धनी भी था। एक जगह इसने स्वयं लिखा है कि “ एक दूसरेकी सौत होनेके कारण महालक्ष्मी और सरस्वतीमें परस्पर वैर है इसलिए इस ( मंडन ) के घरमें इन दोनोंकी बड़ी जोरोंसे बदाबदी होती है अर्थात् लक्ष्मी चाहती है कि मैं सरस्वतीसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com " न Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिक बढ़ और सरस्वती लक्ष्मीसे अधिक बढनेका प्रयत्न करती है। मालवेके बादशाहका इसपर बहुत ही प्रेम था। ऐसे ऐसे विद्वानों की संगतिसे बादशाहको भी संस्कृत साहित्यका अनुराग हो गया था । एक दिन सायंकालके समय बादशाह बैठा था । विद्वानोंकी गोष्ठी हो रही थी। उस समय बादशाहने मंडनसे कहा कि “ मैंने कादंबरीकी बहुत प्रशंसा सुनी है और उसकी कथा सुननेको बहुत जी चाहता है । परंतु राजकार्यमें लगे रहनेसे इतना समय नहीं कि ऐसी बड़ी पुस्तक सुन सकूँ। तुम बहुत बड़े विद्वान् हो अतः यदि इसे संक्षेपमें बनाकर कहो तो बहुत ही अच्छा हो" । मंडनने हाथ जोड़कर निवेदन किया कि " बाणने स्वयं ही कादंबरीकी कथा संक्षेपसे कही है परंतु यदि आपकी आज्ञा है तो मैं इसकी कथा संक्षेपमें निवेदन करूँगा" यह कहकर इसने “ मंडन कादंबरी दर्पण " नामक अनुष्टुप् श्लोकों में कादंबरीका संक्षेप बनाया xxx 1 x x x x x x __ मंडन जैन संप्रदायके खरतर गच्छ का अनुयायी था । उस समय खरतरगच्छके आचार्य जिनराज सरिके शिष्य जिनभद्र सूरि थे। मंडनका सारा ही कुटुंब इन पर बहुत ही भक्ति रखता था और इनका भी मंडनके कुटुंब पर बड़ा ही स्नेह था। x + ___ मंडन यद्यपि जैन था और वीतरागका परम उपासक था परंतु उसे वैदिक धर्मसे कोई द्वेष नहीं था। उमने अलंकार मंडनमें अनेक ऐसे पद्य उदाहरणमें दिए हैं जिनका संबंध वैदिक धर्मसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकृष्णस्य पदद्वन्द्वमधमाय न रोचते अलं० म० परि० ५ श्लो. ३३९ अर्थात् जो नीच होते हैं उन्हें श्रीकृष्णके चरणयुगल अच्छे नहीं लगते । किं दुःवहारि हरपादपयोजसेवा यदर्शनेन न पुनर्मनुज मेति तत्रैव ९७ अर्थात् दुःखको हरण करनेवाला कौन है ? महादेवके चरण कमलों की सेवा, जिनके दर्शनसे फिर मनुष्यत्व प्राप्त नहीं होता ( मोक्ष हो जाता है।) मंडनके जन्म तथा मृत्युका ठीक समय यद्यपि मालूम नहीं होता तथापि मंडनने अपना मंडपदुर्ग ( मांडू ) में वहाँ के नरपति आलम शाहका मंत्री होना प्रकाशित किया है। यदि उपरोक्त अनुमानके अनुसार आलमशाह हुशंग गोरो ही का नाम है तो कहना होगा कि मंडन ईसाकी १५ वीं शताब्दिके प्ररंभमें हुआ था, क्यों कि हुशंगका राज्यकाल ई० स० १४०५ से ई० स० १४३२ है। विक्रम संवत् १५० ४ ( ई० स० १४४७ ) की लिखी मंडनके ग्रंथों की प्रतियाँ पाटणके भांडारमें वर्तमान हैं । इमसे प्रतीत होता है कि ईस्वी सन् १४४७ के पूर्व वह ये सब ग्रंथ बना चुका था । मुनि जिनविजयजी के मतानुसार ये प्रतियाँ मंडन ही की लिखवाई हुई हैं। वि० सं० १९०३ में मंडनने भगवतीसूत्र लिखवाया था* | ___ * संवत् १५०३ वर्षे वैशाखसुदि १ प्रतिपत्तिथौ रविदिने अद्येह श्रीस्तंभतीर्थे श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनाजरिपट्टे श्रीजिनभद्रसूरीणामुपदेशेन श्री श्रीमालज्ञातीय सं० मांडण सं० धनराज भगवतीसूत्र पुस्तकं निज. पुण्यार्थ लिखापितम् (पाटण भांडार ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) इससे स्पष्ट है कि मंडन वि० सं० १५०४ ( ई० स० १४४७ ) तक वर्त्तमान था । + + + + मंडनके बनाये हुए कुल १० ग्रंथ अबतक विदित हुए हैं जो नीचे लिखे अनुसार हैं । ( १ ) कादम्बरी दर्पण. ( २ ) चंपू मंडन. ( ३ ) चंद्रविजय प्रबंध. ( ४ ) अलंकार मंडन. (६) शृंगार मंडन. ( ७ ) संगीत मंडन. ( ८ ) उपसर्ग मंडन. ( ९ ) सारस्वत मंडन. ( ५ ) काव्य मंडन. (१०) कविकल्पद्रुम स्कंध . इनमें से आदिके छ ग्रंथ हेमचंद्राचार्य सभा पाटण की ओर प्रकाशित हो चुके हैं । + + + + उपरि लिखित लेखसे पाठकों को विदित होगा कि मुसलमानी साम्राज्य में भी संस्कृत भाषा की कितनी उन्नत अवस्था थी । बड़े बड़े 'धनिकों और राज्यकर्मचारियोंमें भी इसका कितना प्रचार था । उस समयके धनी लोग कैसे विद्याव्यसनी और विद्वान् होते थे, और विधर्मी होने पर भी मुसलमान बादशाह संस्कृत भाषा पर कितना प्रेम रखते थे । [ नागरी प्रचारिणी पत्रिका भाग ४ अंक १ ] प्यारे सज्जन जैन भाइयो ! ऊपरके लेखसे आपको सुविदित हो गया होगा कि पूर्व कालमें हमारे जैन गृहस्थ स्वधर्मी बंधु कैसे विद्वान् गंभीर परोपकारी दयालु धनी दानी धर्माभिमानी और पराक्रमशाली तथा सत्ताधिकारी राज्यकर्मचारी मंत्री होते थे । और आजकल हमारी. 1 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) I या हमारे जैन समाजकी क्या दशा हो रही है ? बस यह दिग्दर्शन मात्रही ऊपरके लेखका मतलब है । यदि निष्पक्ष हो तत्त्वदृष्टि देखा या सोचा जावे तो समाजकी अवनत अवस्थाका मुख्य कारण विद्याका अभाव ही है । जिस समयमें वस्तुपाल, तेजपाल, धनपाल, धनद, मंडन जैसे सत्ताधारी धनी गृहस्थ उच्चकोटिके विद्वान् होते थे उस समयमें उनकी श्रवणेच्छाको पूर्ण करनेवाले आचार्य उपाध्या -- यादि साधु समुदाय भी पूर्ण विद्वान् समयज्ञ सर्वावसर सावधान होता था। चाहे आचार्य ही क्यों न हो यदि वे अपने स्थानसे पतित हुए मालूम होते थे झटसे उनका बहिष्कार कर दिया जाता था तो अन्य सामान्य साधुके लिये तो कहना ही क्या ? * उस समय आजकलकी तरह प्रायः दृष्टिराग या सांसारिक नातेको लिए स्नेहराग नहीं होता था किंतु धर्मरागही होता था । मतलब जैनगृहस्थ पठित होते थे तो जैन नेता जैन साधुभी बड़े भारी साक्षर - पंडित - विद्वान होते थे । आज कल गृहस्थों में विद्याकी कमी हो गई है तो साधुओंमें भी इस कमीकी कमी नहीं है । क्या कोई जैननेता आचार्य उपाध्याय पंन्यास गणी साधु तथा धर्मात्मा धनी जैन " * जिनमाणिक्यसूरि (वि० सं०१५८३ - १६१२ ) के समय की लिखी हुई पट्टावली और बीकानेरक यति क्षमा कल्याणजीकी बनाई हुई: पट्टावलीसे विदित होता है " कि जिनराज सूरिके पट्टपर पहले जिनवर्द्धन सूरिको स्थापित किया था परंतु उनके विषयमें यह शंका होनेपरकि उन्होंने ब्रह्मचर्य भंग किया है उनके स्थान पर जिनभद्रसूरिको स्थापित किया गया था । ( पृष्ठ ९५ ना. प्र. प. भाग ४ अंक ९ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) गृहस्थ इस कमीको दूर करनेका बीड़ा उठायगा ? धन्य वह दिन आयगा फिर ग्राम ग्राम नगर नगर और देश देशमें पंडित जैन गृहस्थ और जैन साधु मुनिराज दिखलाई देवेंगे । सज्जनो जैन समाजकी आधुनिक दशासे दुःखित हृदय होकर इतना लिखा है आशा है मेरी पृष्ठताको माफ करके हंसचंचू होकर गुणग्राही बनकर मेरी तरह जैनसमाजकी अवनत दशा पर दो बूँदें डाल कर जैनसमाजकी उन्नति के लिये कटिबद्ध हो जायँगे । इतनी आप सज्जनोंसे प्रार्थना करके अब मैं अपना प्रस्तुत विषय बतलाऊँगा और क्षमाका प्रार्थी होकर अपनी लेखिनीको बंद कर दूँगा । आपको यह तो बखूबी रोशन हो गया कि जैन समाजमें आजकल विद्याका -हास हो गया है इसी लिए क्या गृहस्थ और क्या साधु प्रायः सबके सब संस्कृत प्राकृतके अनभिज्ञ होनेसे भाषाको ही पसंद करते हैं । यही कारण है कि प्रति वर्ष अनेक संस्कृत प्राकृत ग्रंथोंके गुर्जर गिरामें भाषान्तर छपते चले जाते हैं । एक समय वह था कि नये से नये संस्कृत प्राकृतके ग्रंथोंकी रचना द्वारा संस्कृत प्राकृत साहित्यकी वृद्धि होती थी । आज वह जमाना आ गया कि संस्कृत प्राकृत साहित्यकी हानिरूप भाषा ही भाषा होती जाती है । सत्य है परिवर्तन शील संसार कहा जाता है । अस्तु कभी फिर वह जमाना भी आजायगा जब संस्कृत प्राकृतका साहित्यही संसारभरमें फैल जायगा । जमाने हालमें तो जिस पर लोगोंकी रुचि बढे और जिससे वे फायदा उठा सकें वैसा ही प्रयत्न होना ठीक समझा जाता है और इसी लिये इस प्रस्तुत गणधर पूजा की रचना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) की गई है। इस पूजाके बनानेके लिये प्रतापगढ़से सद्गत पंन्यासनी महाराज १०८ श्री चतुर विजयजाके शिष्य मुनिश्री दुर्लभ विजयजी तथा घीयाजी श्रीयत लक्ष्मीचंदजी आदिके प्रार्थना पत्र आनेपर रचयिताने यथाशक्ति अपना ज्ञानामृत हम लोगोंतक पहुँचानेकी कृपा की इसलिए रचयिता और प्रेरक सबको धन्यवाद देना उचित समझा जाता है। प्रथम पत्र प्रेरक की तरफ से संवत् १९८१ माघ सुदि ७ का लिखा तारीख १-२-१९२५ का रवाना हुआ ता० ४-२-१९२५ को मुकाम गुजरांवालामें आचार्य महाराज श्री १०८ श्री विजयवल्लभ सूरि जी की सेवामें पहुँचा जिस की नकल यह है । श्रीमान् जैनाचार्य विजयवल्लभ सूरिजी महाराज साहिब । प्रतापगढ़से मुनि दुर्लभविजयकी सविनय वंदना सविधि वंचसी । अत्र कुशलं तत्रास्तु-सविनय प्रार्थना के-गणधर श्री गौतम स्वामी जीकी पूजा नहीं है सो आप कृपा करके शुद्ध हिन्दीमें पूजा दीपोत्सव प्रथम बन जाय तो अच्छा है क्यों कि वाक्य रचना व गुण स्मरण व सिद्धांत निर्देश आपकी कवितामें विशेष माधुर्यता है, इस हेतुसे यह नम्र प्रार्थना की है सो स्वीकार करके शीघ्र सूचित करेंगे। इस कृतिसे गच्छ समाजमें महान् पुण्य का कारण होगा। अत्रोचित कार्य लिखना । सं० १९८१ माघ शु. ७ हस्ताक्षर लक्ष्मीचंद घीयाकी बंदना वंचसी। ___ ली. लक्ष्मीचंद घीयाकी वंदना अवधारियेगा कृपापत्र लिखाइयेगा अभी मैं प्रतापगढ़ ही हूँ ( मालवा ) राजपूताना । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) २ दूसरा पत्र–श्री आत्मानन्द जैन श्वेताम्बर गुरुकुल श्री गुजरानवाला ( पंजाब ) इस पते पर आया जिसकी नकल वीर संवत् २४५१ ॥ ॥ श्री ॥ प्रतापगढ ( राजपूताना ) विक्रम संवत् १९८१ फागनवदि १२ शुक्र ता. २०-२-१९२५ पूज्यवर्य जैनाचार्य श्री श्री श्री १०८ विजयवल्लभ सूरीश्वरजी महाराज साहेब की परम पवित्र सेवामें मु. गुजरानवाला ( पंजाब ) सविनय हार्दिक विधि वंदना स्वीकृत हो विनति विशेष-प्रथम कार्ड समर्पण किया वो मिला ही होगा यहाँ श्री चंद्रप्रभ भगवान् ( गुमानजीका मंदिर ) में एक चोक विशाल जिसके मध्यमें एक छत्री जिसमें गौतमस्वामी आदि ११ गणधरों के चरणपादुका । यहाँके श्रावक लोग जानते नहीं थे। जब शांत मूर्ति पूज्य श्रीमान हंसविजयजी महाराज यहा पधारे थे तब महाराज साहबने निरीक्षण किया तो ११ गणधरों के चरण पादुका कमल पुष्प आकार के मालूम हुए. जबसे गणधरों की पूजा होने लगी । आपसे विनति यह है कि श्रीगौतमस्वामी को आद लेकर ११ गण धरोंकी पूजा विविध राग रागणीमें हिन्दीकी रचना की जावे तो बड़ा लाभका कारण है । पूज्य श्रीमान् हंसविजयजी महाराज साहबको लिखा तो उत्तरमें आपके लिये फर्माया इसलिये सादर विज्ञप्ति है कि इस कार्यको जितना जलदी पूर्ण करेंगे उतनाही श्रेष्ठ है। दीवाके एक माह प्रथम छपके जाहिर हो जाना अति लाभका कारण है । आप आचार्य महा कवि हैं इसलिये मुझे दृढ खात्री है कि मेरी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..(१५) विज्ञप्ति निष्फल नहीं होगी क्योंकि आप दयालु तथा शासन प्रभावक आचार्य हैं इत्यलम् । मुनि दुर्लभ विजयकी वंदना । ( हस्ताक्षर ) __ सालगिया चोखचंदकी सविनय हार्दिक विधिवंदना मान्य करियेगाजी । हे नाथ आप श्री पंजाब देशका उद्धार कर रहे हैं ऐसी ही निगाह इस मालवा प्रांतकी ओर सुदृष्टि करेंगे ऐसी आशा है । श्रीमान् मुनिराज दुर्लभ विजयजीको ज्वर आता है इस कारण फागण चौमासा यही होगा । इनके उपदेशसे एक गायनमंडली एक माहसे कायम हुई है पाँच सात लडके प्रतिदिन श्रम करते हैं। श्री गणधरोंकी अंगरचना चांदीकी हुई है पूजाकी त्रुटि है वो आप पूर्ण करेंगे यह पूर्ण आशा है । [ महाराज साहब जहाँ हों वहां यह पत्र पहुंचानेकी कृपा करें] ऊपर लिखे दोनों पत्रोंके जवाबमें श्री आचार्य महाराजने श्रीयत घियानी द्वारा फर्माया था कि आपके दोनों पत्र मिले अवसर होगा और ज्ञानीमहाराजने ज्ञानमें देखा होगा तो संभव है आपकी इच्छा पूर्ण हो जायगी परंतु आप यह लिखें कि जिस पूजाको आप चाहते हैं वह कितनी बडीहो यानी उसका कितना विस्तार किया जावे। तथा चाल और राग रागिणियां कौन कौनसी होवें ? जिसके जवाबमें घीयाजी ने ता. २-४ १९२५ को अपने पत्रमें प्रार्थना की है कि-"अधिक विस्तार वाली पूजा बहुत बड़ी होनेसे पढ़ाने वाले अधिक समय लगानेमें उत्साह रहित होजाते हैं इस लिये आप जैसे योग्य जाने और जहाँ तक हो सके संक्षिप्त बने ऐसी कृपा करें आप स्वयं विज्ञ हैं हम सेवकोंकी योग्यता आपसे छिपी हुई नहीं हैं । चाल तथा रागरागिणियों के लिये भी आप समShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) यज्ञ हैं जैसी आपके ध्यानमें आवे वैसीही ठीक होगी। क्योंकि आजतक जितनी पूजाएँ आप श्री की कृतिकी हैं प्रायः उन सभीको लोग पसंद करते हैं और चाहसे पढ़ाते हैं--इत्यादि।। __पूर्वोक्त प्रार्थना को मान देकर आचार्य महाराज मरहम जैनाचार्य १००८ प्रातः स्मरणीय न्यायांभोनिधि श्रीमद्विजयानंद सूरि प्रसिद्ध नाम श्रीआत्मारामजी महाराज साहिबके पट्टधर श्री १०८ श्रीमद्विनय वल्लभ सरिजी महाराजसाहिबने यह प्रसादी हम सेवकोंको बख्शी है। हम सेवकवर्गका कर्त्तव्य है कि इसका यथायोग्य शुभ उपयोग करके आचार्य श्रीकी मिहनतको सफल करें । इति शम् ।। विनीतप्रकाशक। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि । । पहले प्रभु श्री महावीर स्वामीकी प्रतिमाजीके आगे श्रीगणधर देवकी प्रतिमा या चरणपादुका स्थापन करनी चाहिए, फिर स्नात्र पूजा पढ़ाये बाद पूजाका प्रारंभ करना । प्रति गणधर अष्ट द्रव्यकी थाली या रकेची लेकर एक स्नात्री प्रति पूजा में खडा होवे । थाली या रकेबीमें प्रति पूजा चाँदी या स्वर्णकी मुद्रा चढ़ावे । यथाशक्ति भाक्त करना परम कर्त्तव्य है । एक पाट पर ११ स्वस्तिक कर प्रत्येक पर एक एक पैसा और एक एक सुपारी रखने चाहिए । यदि पैसे के स्थानपर कोई भाग्यवान रुपया या मोहर चढ़ाना चाहे तो उसे अखतियार है। प्रभुभक्तिमें भावकी मुख्यता है । अमीर और गरीब सभी अपने अपने भावानुसार कार्य कर सकते हैं । करना कराना अनुमोदना भावानुसार फल देता है । दोहा आदि पूजा पढ़ लेनेके बाद प्रभु प्रतिमा और गणधर प्रतिमा या चरणपादुका जो कुछ स्थापन किया हो उनका अभिषेकादि प्रकार प्रत्येक पूजामें पृथक् पृथक् करना । अग्रपूजाकी सामग्री अर्थात् पूजन दीप घूप अक्षत फल नैवेद्य और नकद स्वस्तिकपर स्थापन कर देने । • देव वंदन विधि यदि गणधर देववंदन करनेकी इच्छा होवे तो इरिया वहिया • तस्स ० एक लोगस्सका काउस्सम्म चंदेसु निम्मलयर तक, पीछे प्रकट लोगस्स । बादमें— इच्छाकारेण संदिसह भगवन चैत्य वंदन करूं ? इच्छं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) कहकर पाँच दोहे जो पूजाकी आदिमें हैं वे चैत्यवंदनके स्थानमें पढ़ने बादमें जं किंचि. नमुत्थुणं० जावंति चेइयाई ० जावंतकेवि ० नमोर्हत् • कहकर स्तवनके स्थानमें पूजाकी ढाल पढ़लेनी । बादमें जयवीयराय • अरिहंतचेइयाणं ० अन्नत्थ० एक नवकार मंत्रका काउस्सा | पीछे थई के स्थान में “सुरनरेश्वर पूजित पत्कजं" इत्यादि काव्य पढ़ लेना । पीछे “ गौतमस्वामिसर्वज्ञाय नमः " यह पाठ ११ बार कहना पीछे ११ नवकार गिनने । फिर इच्छामि खमासमणो ० इच्छाकारेण संदिसह भगवन् श्रीइंद्रभूतिगौतमस्वामि - गणधर आराधनार्थं करेमि काउस्सग्गं अन्नत्थ० ११ लोगस्सका काउस्सम्ग करना । पीछे खुल्ला लोग्गस्स ० पीछे " इच्छामि खमासमणो ० अविधि आशातना मिच्छामि दुक्कडं | यह प्रथम गणधर देववंदन विधि समझना । इसी तरह सर्व गणधर देववंदन समझ लेना । केवल गणधर महाराजका नाम बदल देना । ११ गणधर देवोंके नाम | १ श्री इंद्रभूति ( गौतम स्वामी ) । २ श्रीअग्निभूति । ३ श्रीवायुभूति । ४ श्री व्यक्तस्वामी | ५ श्रीसुधर्मास्वामी । ६ श्रीमंडित स्वामी । श्रीमौर्यपुत्र स्वामी । ७ ८ श्री अकंपित स्वामी । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९ श्रीअचल भ्राता । १० श्रीमेतार्य स्वामी । ११ श्रीप्रभास स्वामी । यह विधि प्रायः श्रीज्ञानविमल सूरि कृत ११ गणधर देववंदनके अनुसार है । फरक इतना है कि उन्होंने चार चार थुइयाँ रक्खी हैं और यहाँ संक्षेपार्थ एक एक ही थुई कही है। परंतु यदि किसीकी भावना चार चार थईसेही देववंदन करनेकी होवे तो वो बड़ी खुशीसे कर सकता है और उसके लिये इतना अधिक समझ लेनाभी योग्य है। चैत्यवंदन० किचि० नमुत्थुणं० अरिहंतचेइयाणं० अन्नत्थ. एक नवकारका काउस्सम्गा । थूई पढ़कर लोगस्स० सव्व लोए ० अरिहंतचेइयाणं० अन्नत्थ. एक नवकारका काउस्सम्ग दूसरी थूई । पीछे पुक्खरवरदी० सुअस्स भगवओ० अन्नत्थ० एक नवकारका काउम्सम्ग तीसरी थई । पीछे सिद्धाणं बुद्धाणं० वेयावच्चगराणं ० अन्नत्थ० एक नवकारका काउस्सग चौथी थूई । पीछे नमुत्थुणं० जावंति० जावंत. नमोर्हत्० स्तवन और जयवीयराय. पीछे श्रीगौतमस्वामिसर्वज्ञाय नमः" इत्यादि । चार थुईकी पूर्ति इस प्रकार करलेनी । प्रथम स्तुतिके स्थानमें काव्य और शेष तीन थुई श्रीज्ञान विमलसूरिजी वाली । सुभीतेके लिए चारों थूइयाँ लिखी जाती हैं। सरनरेश्वर पजित पत्कजं, श्रतिपदेन समद्भवसंशयम् । जिनपवीर गिरा गतकल्मषं, गणधरं श्रुतरत्नधरं स्तुवे ॥ १ ॥ द्रुतविलंबित ] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) सवि जिनवर केरा साधु मांहे वडेरा । दुगवन अधिकेरा चउद सयसु भलेरा ॥ टाल्या दुरित अंधेरा वंदिये ते सवेरा । गणधर गुण घेरा नाम छे तेह मेरा ॥२॥ सवि संशय कापे जैन चारित्र छापे । तब त्रिपदी आपे शिष्य सौभाग्य व्यापे ॥ गणघर पद थापे द्वादशांगी समापे । भक्दुख न संतापे दास ने इष्ट आपे ॥ ३ ॥ करे जिनवर सेवा जेह इंद्रादि देवा । समकित गुण मेवा आपता नित्य मेवा ॥ भवजलधि तरेवा नौ समी तीर्थ सेवा। ज्ञान विमल लहेवा लील लच्छी वरेवा ॥ ४ ॥ [ मालिनी] इस पजामें श्रीज्ञानविमल मरिनी कृत ११ गणधर देववंदनका आलंबन लिया गया है और इसी कारण रचयिताने कृतज्ञता सूचन निमित्त उन महात्माका अर्थात् श्री ज्ञानविमल सरिजीका शुभ नाम प्रतिपजामें अंकित किया है । भूलचकके लिए क्षमाका प्रार्थी प्रकाशक । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दे श्रीवीरमानन्दम्। ॥ अथ श्रीवीरएकादशगणधरपूजा ॥ ॥दोहा॥ व, श्री अरिहंतको, सिद्ध सकल भगवंत । सूरी पाठक प्रेमसे, नमन करूँ मुनि संत ॥१॥ शासन नायक वीरजी, गुरु गौतम गणधार । नमन करी पूजा रचूँ, गणधर पद सिरिकार ॥२॥ श्रीगुरु आतमरामजी, विजयानंद सुकंद । ज्ञान विमल आलंबने, वल्लभ हर्ष अमंद ॥३॥ जिनवर वाणी भारती, गणधर हद जिम गंग । निर्मल धारा शारदा, दीजे अति उछरंग ॥४॥ सिद्धारथ-कुल-चंद्रमा, त्रिशलानंदन वीर । धीर वीर गंभीर हे, जगदावानल नीर ॥५॥ पठी सुदि आषाढकी, च्यवन कल्याणक जास । चैत्र सुकल तेरस भली, जन्म कल्याणक तास ॥६॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) मगसिर वदि दशमी दिने, ग्रहि दीक्षा जिनराय । रोध सुकल दशमा हुओ, केवल ज्ञान उपाय ॥ ७ ॥ माधव सुदि एकादशी, नगर अपापा सार । समवसरे प्रभु वीरजी, महासेन वन धार ॥ ८ ॥ सोमल द्विजके यज्ञमें, विप्र मुखी अगियार । वेद - अर्थ उलटा करं, मन अभिमान अपार ॥ ९ ॥ जीवादिक संशय हरी, एकादश गणधार । बीर प्रभु थापन किये, जिनशासन जयकार ॥ १० ॥ जिम तीर्थंकर नामसे, तीर्थ करे अरिहंत | तिम गणधर शुभ नामसे, द्वादश अंग करंत ॥ ११ ॥ गिरिवर दर्शन विरळा पावे - यह चाल | गणधर नाम करम परभावे, गणधर गणधर पद उपजावे । ग० अंचली । सम चउरस संठाणे सोहे, तिम पहला संघयन कहावे | गण० १ ॥ ध्रुव उत्पाद विगम ये तीनों, पद अरिहंत स्वमुख से सुनावे | ग० २ ॥ त्रिपदीके अनुसारे गणधर, आगम रचना सब फरमावे | ग० ३ ॥ १ - २ - वैशाख । * इसको यदि बरवा - वा- पीलूमें गाना चाहो गा सकते हा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) गणधर चार ज्ञानधर होव, केवल ज्ञान अंतमें पावें । ग० ४ ॥ क्षय करी कर्म इसी भव गणधर, पंचम गति मुक्तिमें जावें । ग०५॥ मुनि गण गच्छके धारण कर्ता, गणधर शब्द यथारथ थावे । ग०६॥ आतमलक्ष्मी ज्ञानविमल गुण, वल्लभ हर्ष अपूरव भावे । गणधर ० ७ ॥ ॥ अथ प्रथम श्रीइंद्रभूति गणधर पूजा ॥ ॥दोहा॥ देश मगधमें जानिये, गोबर नाम सुगाम । वसुभूति द्विज नंदनो, इंद्रभूति शुभ नाम ॥१॥ गौतम गोत्र प्रसिद्ध है, पृथिवी मात सुजात । ज्येष्टा रिखं है जन्मका, कंचन वर्ण सुगात ॥२॥ पंचाशत गृह तीम है, दीक्षा केवल बौर । नमिये मन वच कायस, सर्व लांब्ध भंडार ॥३॥ चेतन सत्ता है नहीं, पाँच मूतसे जीव । मद मदिराके अंगसे, जिम है होत सदीव ॥४॥ १ नक्षत्र । २ शरीर। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) शंका दूषित आतमा, आया निकट जिनंद । मधर वचन समझाइया, देकर साखी छंद ॥५॥ सारंग-कहरवा। सत्ता आतम जिन फरमाना । अंचली। जो जो हैं शुद्ध पद इस जगमें, उनका वाच्य अर्थ सब माना । स०१॥ भूत किसीमें चेतन शक्ति, है नहीं चेतन जीव वखाना । स० २॥ प्रत्यक्ष सोहं प्रत्यय चेतन, चेतन विन किस सोहं जाना । स०३॥ दान दया दम जाने चेतन, वेद वचन द द द परमाना । स०४॥ वीर वचन सुधा पानसे गौतम, चरन पर्यो तजी निज अभिमाना। स०५॥ पनरां सौ तापस प्रति बोधी, अष्टापद तीरथ चल जाना । स० ६ ॥ आतम लक्ष्मी ज्ञान विमल गुण, वल्लम हर्ष अपूरव पाना । स०७॥ __ काव्य। सुरनरेश्वर पूजित पद्कजं, श्रुतिपदेन समुद्भव संशयम् । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) जिनपवीरगिरागतकल्मषं, गणधरं श्रुतरत्नधरं स्तुवे ॥ १ ॥ मंत्र । ॐ ह्रीं, श्रीं, परमपुरुषाय, परमेश्वराय, जन्मजरामृत्युनिवारणाय, सर्वलब्धिनिधानाय, श्रीमते गौतमगणधराय, जलादिकं यजामहे स्वाहा । ॥ अथ द्वितीय श्री अग्निभूति गणधरपूजा ॥ ॥ दोहा ॥ अग्निभूति रिख कृत्तिका, इंद्रभूति लघु भ्रात । गाम गोत्र वही देश है, वही मात अरु तात ॥ १ ॥ छै चली गृहवास में, बौर वरस मुनि राय । सोर्ले वरस जिन केवली, वेद ऋषि कुल आय ॥ २ ॥ वाद कियो सह वीरके, बंधु गयो मुझ हार । यह मुझ मन माने नही, कीनो यह निरधार ॥ ३ ॥ जाय हराऊँ वीरको, ले आऊँ निज वीर । मानकरी परिवार सह, आयो प्रभुके तीर ॥ ४ ॥ वीर कहे सुख शांतिसे, आयो गौतम भाय । अग्नि मूर्ति तुम कर्मकी, शंका मनमें थाय ॥ ५ ॥ लावनी- देश - त्रिताला । सुनो अग्निभूति तुम वीर प्रभु कहे ज्ञानी । विन कर्म जगत वैचित्र्य कहो किम जानी । अंचली । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) सुखी एक एक दुःखी राव एक एक रंका, धनी एक मरोडे मुछ फिरे बन बंका | एक ठाकर चाकर एक एक जग रोगी, एक रोग रहित एक सोग रहित एक सोगी ॥ भोगी जग भोग रहित निर्धन अभिमानी । विनकर्म ०१ ॥ जनमत कइ लूले अंध अपाज कहावे, कह दो दस आदि बाद वरसमें थावे | कइ सधवा विधवा नार पुरुष कइ रंडे, कइ मंडे निज घर बार कई जग खंडे ॥ इम विध विध यह संसार सरूप कहानी । विनकर्म ०२ || रूपी जंग करम अरूपी आतम कैसे, बने मेल नहीं चंदन आकाशका जैसे । यह बात भी जोग नहीं जग ज्ञान अरूपी, मद्य ब्राह्मीसे उपघात अनुग्रह रूपी ॥ वेदादि आगम बात करमकी बखानी । विनकर्म० ३ ॥ इत्यादि अग्निभूति सुनी प्रभु वानी, तज दीनो निज अभिमान प्रभुको मानी । सच्चे प्रभु तुम हो ज्ञानी हूँ मैं अज्ञानी, धन्य इंद्रभूति जिन आप किये गुरु ज्ञानी ॥ दीजे दीक्षा मुझ पाऊँ पद निरवानी । विनकर्म० ४ ॥ दीक्षा दीनी प्रभु गणधर पदवी साथे, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७.) धन्य जन्म जगत जस जिनवर है गुरु माथे। कियो वासक्षेप प्रभु वीर सुरासुर इंदा, आतम लक्ष्मी गुण ज्ञान विमल जिन चंदा ॥ वल्लभ हर्षे मन मानी गुरु आसानी । विनकर्मः ५॥ काव्य। सुरनरेश्वर पूजित पदकजं, श्रुतिपदेन समुद्भव संशयम् । जिनपवीरगिरागतकल्मषं, गणधरं श्रुतरत्नधरं स्तुवे ॥१॥ मंत्र । ॐ, ही, श्री, परमपुरुषाय, परमेश्वराय, जन्मजरामृत्युनिवारणाय, सर्वलब्धि निधानाय श्रीमते अग्निभूतिगणधराय, जलादिर्क यजामहे स्वाहा । ॥ अथ तृतीय श्री वायुभूति गणधर पूजा ॥ ॥दोहा॥ रिख स्वातिमें जनमिया, वायु भूति जस नाम । मात तात शुभ गोत्र है, वही देश अरु गाम ॥१॥ मुझ बांधव दोनों हुए, अनुचर जस गुरु देव । अपना संशय टारके, मैं मी करूँ तस सेव ॥२॥ . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) नम्न भाव इम आइयो, वीर. प्रभूके पास । वचन सुनी प्रभु वीरके, सफल हुई सब आस ॥ ३॥ दो चाली घरमें रहे, बाद हुए अनगार। छौं वरस दसकी कही, केवली वर्ष अँठार ॥४॥ जीव देह दो एक हैं, संशयमें मन लीन । वीर वचन संशय गयो, हुओ ज्ञान परवीन ॥५॥ ___ लावनी-मराठी-ऋषभजिनंद विमलगिरिमंडन-यह चाल ।। वीर कहे सुनो वायुभूति तुम, जीव देह है न्यारा रे । नही जीव देह दो, एक ही जानत सब संसारा रे।।अंचली। देह विना प्रत्यक्ष नहीं कोई, जीव तनु निरधारा रे । जल बुदबुदके सम, तनुमें जीव है तुमरा विचारा रे॥धीर० मिथ्या है यह बात तुम्हारी, इच्छादि गुण द्वारा रे । गुणी देशसे परतख,जगतमें जीव ज्ञान निजधारारे।वीर० इंद्रिय जीव नहीं इंद्रियके, नाश स्मरण अवधारा रे । नहीं देह जीव है,मरण है जसवो जीव उदारा रे।वीर०३॥ ब्रह्मचर्य सत्य तप परभावे, देखत संयत प्यारा रे । शुभ आतम तनुसे, भिन्न है वेद वचन उच्चारा रे।वीर०४॥ आतम लक्ष्मी ज्ञान विमल गुण,वीर वचन अनुसारारे। चायुभूतिने, पाया वल्लभ हर्ष अपारा रे ॥ वीर० ५॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९ ) काव्य । सुरनरेश्वर पूजित पङ्कजं, श्रुतिपदेन समुद्भव संशयम् । जिनपवीर गिरागतकल्मषं, गणधरं श्रुतरत्नधरं स्तुवे ॥ १ ॥ मंत्र | ॐ ह्रीं श्रीं, परमपुरुषाय, परमेश्वराय, जन्मजरामृत्युनिवारणाय सर्वलब्धि निधानाय श्रीमते वायुभूतिगणधराय, जलादिकं यजामहे स्वाहा | ॥ अथ चतुर्थ श्रीव्यक्तस्वामि गणधरपूजा | सन्निवेश कोल्लाक में, धनुर्मित्र द्विज नार । वारुणि नंदन व्यक्त है, श्रवण जन्म जस तार ॥ १ ॥ भारद्वाज घरमें रहे, वर्ष पचीस प्रमान | बौर छद्म अरु केवली, वर्ष अठार जान ॥ २ ॥ इंद्रभूति आदि हुए, वीर प्रभुके सीस । निश्चय ये भगवान हैं, मानँ विसवा वीस ॥ ३॥ संशय अपना छेदके, शिष्य बनूंगा तास । नम्र भाव धारण करी, आये प्रभुके पास, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) संशय तुमको भूतका, पंडित व्यक्त सुजान । अर्थ यथारथ वेदका, भाखे श्री भगवान ॥ ५॥ ___॥ वसंत-होई आनंद बहार रे-चाल ॥ सुनियो वेद विचार रे प्रभु वीर वखाने । अंचली। इंद्रजाल सम जग कहे रे, वेदश्रुति निरधार रे-प्रभु वीर० ॥ १ ॥ पृथवी पानी देवता रे, अन्य श्रुति अवधार रे-प्रभुवीर • ॥ २ ॥ इस कारण संशय हुओ रे, __ अध्यातम परिहार रे-प्रमु० ॥ ३॥ भाव अनित्य सूचन करे रे, स्पनोपम संसार रे-प्रभु०॥४॥ सर्वशून्य होवे नहीं रे, स्वप्नास्वप्न प्रचार रे-प्रभु० ॥ ५ ॥ स्यादवाद मत सिद्ध है रे, भावाभाव उदार रे-प्रमु० ॥६॥ आतमलक्ष्मी बोधसे रे, संशय व्यक्त निवार रे-प्रभु० ॥७॥ ज्ञान विमल गुण धारियो रे, वल्लम हर्ष अपार रे-प्रभु० ॥ ८॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) काव्य। सुरनरेश्वर पूजित पदकजं, __ श्रुतिपदेन समुद्भव संशयम् । जिनपवीरगिरागतकल्मषं, गणधरं श्रुतरत्नधरं स्तुवे ॥१॥ मंत्र। ॐ, ही, श्री, परमपुरुषाय' परमेश्वराय, जन्मजरामृत्युनिवारणाय सर्वलब्धि निधानाय श्रीमते व्यक्तस्वामिगणधराय, जलादिकं यजामहे स्वाहा । ॥अथ पंचम श्रीसुधर्मा स्वामि गणधरपूजा ॥ दोहा. पंचम गणधर वंदिये, नाम सुधर्मा तास । वीर पटोधर थापिया, दीक्षा समये जास ॥१॥ धम्मिल सुत कोल्लाकमें, मात महिला धार । गोत्र अग्नि वैशायने, द्वादश रिख अवतार ॥२॥ पंचाशत घरवासमें, दो चीली बत सार। वर्ष वसु रहे केवली, आवागमन निवार ॥ ३ ॥ जो जैसा इस जन्म में, परभव वैसा होय । शालिसे नहीं नीपजे, यव अंकुर जग जोय ॥४॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संशय छेदन कारणे, महावीर भगवंत । चरण कमलमें आयके, कीनो भवको अंत ॥५॥ ___ सोरठ-कुबजाने जादू डारा-यह चाल । प्रभु वीर वचन सुखकारा, धन्य घटमें जिसने धारा । प्रभु०॥ अंचली। वीर कहे सुनो सोहम तुमरे, मनमें ये है विचारा। पुरुषो वै पुरुषत्वको पावे, पशु पशुत्व निहारा ॥ प्रभु०॥१॥ शृगालो वै एष जायते, वेद वचन निरधारा। वेद वचन दो जातके निरखी, संशय चित अवधारा ॥ प्रभु० ॥२॥ निश्चायक नहीं वेद वचन है, संभावन परकारा। नर आयु मृदु आर्जव आदि, कारण वस है धारा । प्रमु०॥३॥ नर भी वो होवें जग ऐसे, पशु करम करनारा। मायादि वस होवे पशु वो, कर्म बीज संसारा ॥ प्रभु० ॥४॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३) शृंगादिसे शरादि होवे, गोमय वृश्चिक प्यारा। कारणके अनुरूप ही कारज, नहीं एकांत उदारा ॥ प्रभु० ॥५॥ इत्यादि युक्ति संगत प्रभु, . वचनसे संशय सारा । दूर करी हुए सोहम पंडित, वीर चरन अनगारा ॥ प्रभु०॥६॥ सोहम पाट परंपर दुप्पसह, यावत् पंचम आरा। आतम लक्ष्मी ज्ञान विमल गुण, वल्लभ हर्ष अपारा ॥ प्रभु०॥७॥ काव्य। सुरनरेश्वर पूजित पदकजं, श्रुतिपदेन समुद्भव संशयम् । जिनपवीरगिरागतकल्मषं, गणधरं श्रुतरत्नधरं स्तुवे ॥१॥ मंत्र । ॐ, ही, श्रीं, परमपुरुषाय, परमेश्वराय, जन्मजरामृत्युनिवारणाय सर्वलब्धि निधानाय श्रीमते सुधर्मस्वामिगणधराय, जलादिकं यजामहे स्वाहा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) ॥ अथ षष्ठ श्रीमंडित गणधरपूजा ॥ दोहा. विजया माता जनमियो, जनक नाम धनदेव । मंडित गणधर होयके, करे वीर जिन सेव ॥१॥ मौर्य मघारिख जन्मका, गोत्र वसिष्ठ प्रधान । तिगण घर वासे वसे, चउद छद्मका मान ॥२॥ वर्ष सोल जिन केवली, सकल लब्धि आवास । बंध मोक्ष है या नहीं, संशय मनमें खास ॥ ३ ॥ विगुण विभू बंधन नहीं, नहीं मोक्ष संसार । कर्म नहीं कर्ता नहीं, जीव अनादि विचार ॥४॥ पुण्योदय आलंबने, संशय छेदन काज । आयो छोरी मानको, सन्मुख श्री जिनराज ॥ ५ ॥ माढ-विमलाचलधारा मल हरनारा-यह चाल ॥ सुनी मंडित पंडित वचन अखडित वीरप्रभु सुखकार । हुए समकितधारी मोह निवारी, लब्धि भंडारी वीरप्रभु गणधार ॥ अंचली। बंध मोक्ष दोनों नहीं रे, वेद वचन अनुसार । संगत नहीं तुम अर्थ है रे, इस विध अर्थ विचार ॥ सुनी ॥१॥ विगत अवस्था छद्मकी रे, विगुण कहावे जीव । केवलज्ञानी विभूकहावे,व्यापक ज्ञान सदीव ॥ सुनी०२॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध जीव पुण्य पापका रे, बंधक नहीं यह तत्व ! बंधक कत्ता कर्मकारे, संसारी सब सत्व ॥ सुनी० ॥३॥ कर्मसंबंध मिथ्यात्वादिकसे, बंध कहावे सोय । तस परमावे नरकादिकमें, __ अनुमव दुःखका होय ॥ सुनी० ॥४॥ दर्शन ज्ञान चारित्रसे रे, कर्म वियोग कहाय । मोक्ष अनंता सुख लहरे, अव्याबाध सदाय ॥ सुनी०५॥ सिद्ध योग जीव कर्मका रे, ज्ञानादि परताप । दूर होवे जिम अग्निसे रे, __ स्वर्ण पाषाण मिलाप ॥ सुनी० ॥६॥ वचन सुनी प्रभु वीरकरे, हुए मंडित अनगार । आतमलक्ष्मी ज्ञान विमलगुण, वल्लम हर्ष अपार ॥ सुनी० ॥७॥ कान्य। सुरनरेश्वर पूजित पद्कजं, श्रुतिपदेन समुद्भव संशयम् । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) जिनपवीरगिरागतकल्मषं, मणधरं श्रुतरत्नधरं स्तुवे ॥ १ ॥ मंत्र | ॐ ह्रीं श्रीं, परमपुरुषाय, परमेश्वराय, जन्मजरामृत्युनिवारणाय, सर्वलब्धि निधानाय श्रीमते मंडितस्वामिंगणधराय, जल। दिकं यजामहे स्वाहा । ॥ अथ सप्तम श्री मौर्यपुत्र गणधर पूजा ॥ ७ ॥ दोहा. मौर्य पुत्र गणि सातमा, मौर्य गाम परधान । विजयादेवी मात जम, मौर्य तात अभिधान ॥ १ ॥ जन्म रोहिणी जानिये, काश्यप गोत्र उदार । पांस वर्ष घरे रहे, छउमथ चउदस धार ॥ २ ॥ सोर्ले बरस जिन केवली, इषु-ग्रह पूरण आय । जैभ सर शिखि बहु साथमें, परिवारे सुख दाय ॥ ३ ॥ देव विषय संदेह युत, संशय छेदन काज । वीर चरनमें आ गये, तब भाखे जिनराज ॥ ४ ॥ मौर्य पुत्र सुख सातसे, आये तुम संदेह | देव विषय वेदार्थका, जानो मतलब एह ॥ ५ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) ( मोह मायाना करना रे.-चाल )* मोह मिथ्या तिमिर मिटाना रे, प्रभु वीर वचन जग भाना ॥ अंचली। इंद्र वरुण यम कुबेर आदि, ___मायोपमा किस जाना। याज्ञिक जावे स्वर्गलोकमें, यह भी वेद वखाना रे-प्रभुवीर० ॥१॥ इसी कारण संशय मन आयो, . दीसे नहीं गीग्वाना। वीर कहे सुनो मौर्यपुत्र तुम, __ प्रत्यक्ष देव पिछाना रे-प्रभु० २॥ हम तुम सन्मुख बैठ हैं देखो, संशय दूर भगाना। वेद वचन मायोपम जानो, देव अनित्य कहाना रे-प्रमु० ३॥ . कल्याणक जिन देव प्रभावे, भुवि मानो देव आना। शेष कालमें स्वर्ग सुखोंमें, मन कारण नहीं आना रे-प्रभु०॥४॥ ___ + यदि इसको सोरठमें गाना चाहो तोभी गा सकते हो। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) वीर वचनसे मौर्य पुत्रको, देव विषय हुआ ज्ञाना । प्रभु चरनमें लेकर दीक्षा, रोम रोम हरखाना रे-प्रभु० ॥५॥ सप्तम गणधर अष्टम गतिमें, पायो पद निरवाना। आतम लक्ष्मी ज्ञान विमल गुण, वल्लभ हर्ष अमानारे-प्रभु० ॥६॥ काव्य। सुरनरेश्वर पूजित पदकजं, श्रुतिपदेन समुद्भव संशयम् । जिनपवीरगिरागतकल्मषं, गणधरं श्रुतरत्नधरं स्तुवे ॥१॥ मंत्र। ॐ, ही, श्री, परमपुरुषाय, परमेश्वराय, जन्मजरामृत्युनिवारणाय, सर्वलब्धि निधानाय श्रीमते श्रीमौर्यपुत्रगणधराय, जलादिकं यजामहे स्वाहा । अथ अष्टम श्रीअकंपित गणधरपूजा ॥८॥ दोहा अंकपित द्विज आठमा, गणधर गुणकी खान । मिथिला नगरी शोमती, गौतम गोत्र प्रधान ॥१॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३९) पिता देवशर्मा मलो, मात जयंती जास। उतराषाढा जनमिया, चारवेद अभ्यास ॥२॥ अँटवेद घरमें रहे, छद्मस्थे नव वास । वर्ष एकविस केवली, वीर चरणकज वास ॥३॥ नारक परलोके नहीं, संशय वासित चीत । वीर प्रभू मनमें धरी, आये सज्जन रीत ॥४॥ मधुर वचनसे भाखिया, वीर विभू जिनराज । अकंपित स्वागत तुमे, संशय छेदनकाज ॥ ५॥ सोहनी । सिद्धगिरि तीरथपर जानाजी-चाल । प्रमुवीर वचन सुख दानाजी-अचंली ॥ प्रेत्य नरकमें नहीं है नारक, __ वेद वचन फरमानाजी-प्रभु० ॥१॥ नारक वो होता है उससे, अन्न शूद्रका खानाजी-प्रमु० ॥२॥ वेद वचनसे नारक सत्ता, ___ संशय हेतु वखानाजी-प्रभु० ॥३॥ मेरु सम नहीं शाश्वता नारक, __ पापी नरकमें जानाजी-प्रमु० ॥४॥ अथवा नारक मरके नारक, होवे नहीं परमानाजी-प्रमु०॥५॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) इस विध अर्थ करनेसे सुंदर, __संशय दूर भगानाजी-प्रभु०॥६। तुम सरीखे नहीं जासकते वहाँ, उनका नहीं यहां आनाजी । प्र०॥७॥ इसकारण परतख नहीं दीसत, युक्ति सिद्ध कहानाजी । प्र० ॥८॥ केवल ज्ञानी देखत परतख, जिम संशय तुम मानाजी ॥ प्र०॥९॥ वीरवचन प्रतिबोधको पामी, हुए दीक्षित मुनिराजाजी ॥ प्र०॥१०॥ आतम लक्ष्मी ज्ञान विमलगुण, वल्लभ हर्ष अमानाजा ॥ प्र० ॥ ११ ॥ काव्य। सुरनरेश्वर पूजित पद्कजं, श्रुतिपदेन समुद्भव संशयम् । जिनपवीरगिरागतकल्मषं, गणधरं श्रुतरत्नधरं स्तुवे ॥१॥ मंत्र। ॐ, ही, श्री, परमपुरुषाय, परमेश्वराय, जन्मजरामृत्युनिवारणाय, सवलब्धि निधानाय श्रीमते श्रीअपितगणधराय, जलादिकं यजामहे स्वाहा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७ ) जिनपवीरगिरागतकल्मषं, गणधरं श्रुतरत्नधरं स्तुवे ॥ १ ॥ [ द्रुतविलंबित ] मंत्र | ॐ ह्रीं श्रीं, परमपुरुषाय, परमेश्वराय, जन्मजरामृत्युनिवाररणाय, सर्वलब्धिनिधानाय, श्रीमते श्रीप्रभासगणधराय जलादिकं यजामहे स्वाहा । कलश धन्याश्री ॥ पूजन करोरे आनंदी भविकजन पूजन करोरे आनंदी । अंचली । चवीस तीर्थ करके गणधर, चउदसो बावन कहंदी - भविक ० ॥ १ ॥ एकादश श्रीवीर प्रभुके, वर्णन निकट संबंदी - मविक० ॥ २ ॥ पांच पांचसो पांचके जानो, तीनसो चार गिनंदी - भविक ० ॥ ३ ॥ साढे तीनसो षष्ठम सप्तम, संख्या शिष्य लहंदी -मविक० ॥ ४ ॥ फलवंता महाप्रज्ञावंता, एकादश जग वंदी - भविक० ॥ ५ ॥ लम्वचन त्रिपदी अनुसारे, रचना अंग करंदी -मविक० ॥ ६ ॥ रोग र सातकी सात वाचना, हो दो सत्र दो हुंदी - मविक० ॥ ७ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) एकादश गणधर इस कारण, गण नव वीर जिनंदी भविक ० ॥ ८ ॥ मास संलेखना मुक्ति सबकी, राजग्रही विकसंदी-भविक ० ॥ ९ ॥ प्रभु होते मुक्ति नव पीछे, गौतम सोहम नदी - भविक० ॥ १० ॥ इम संक्षेपरूप प्रभु गणधर, वर्णन चित्त हुलसंदी - भविक ० ॥ ११ ॥ करें वसुं अंक इंदु आश्विन सुदि, गुजरांवाला सुहंदी - भविक ० ॥ १२ ॥ पंचमी बुध तप अट्ठम साथे, रचना पूर्ण आनंदी- भविक० ॥ १३ ॥ विजयानंद सूरिपद सेवी, लक्ष्मी विजय सुखकंदी - भविक ० ॥ १४ ॥ आतभ लक्ष्मी ज्ञान विमल गुण, वल्लभ हर्ष अमंदी - भविक० ॥ १५ ॥ भूल चूक मिच्छामि दुक्कड, साखी पास जिनंदी - भविक ० ॥ १६ ॥ ॥ इति गणधरपूजा ॥ समाप्त. Saam was a Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरती। जय जिन ओंकारा प्रभु जय जिन ओंकारा आरती उतारूँ जय जिन ओंकारा । अंचली । ऋषम अजित संभव आभनंदा मुमति सुमतिकारा-प्रभु सुमति सुमतिकारा । पदम प्रभु सुपारस स्वामी चंद्र प्रभु धारा-जय जिन ऑकारा । जय० १॥ सुविधि शीतल श्रेयांस जिनंदा वासु पूज्य प्यारा-प्रभु वासुपूज्य प्यारा । विमल अनंत धरम जिन शांति कुंथु हितकारा–जय जिन ओंकारा । जय० २॥ अरमाल सुव्रत नमि नेमि पारस सुखकारा-प्रभु पारस सुखकारा । वर्द्धमान प्रभु वीर जिनेश्वर शासन सरदारा–जय जिन ओंकारा । जय० ३ ॥ चउवीस जिनके गणधर सोहे शत दश और चारा-प्रभु शत दश और चारा । बावन ऊपर वीर प्रभुके गणधर अग्यारा-जय जिन ओंकारा । जय० ४ ॥ इंद्रभूति और अग्निभूति वायु भूति सारा-प्रभु वायु भूति सारा । व्यक्त सुधर्मा मंडित छटा मौर्य पुत्र सारा-जय जिन ओंकारा । जय० ५ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकंपित अरु अचल भ्राता मेतारज प्यारा-प्रभु मेतारज प्यारा / गणधर श्री परभास सुहंकर भय भंजन हारा-जय जिन ओंकारा / जय० 6 // शिव शंकर अघहर अघमोचन निनवर गणधारा-प्रभु जिनवर गणधारा। . आतम लक्ष्मी हर्ष अनुपम वल्लभ अवधारा-जय जिन ओंकारा / जय० 7 // // इति // समाजमें धार्मिक उत्तम ग्रंथ प्रकाशित करनेवाली सीरीज / आत्मवल्लभ-ग्रंथ सीरीज। इसमें अबतक नीचे लिखे ग्रंथरत्न प्रकाशित हो चुके हैं। १-पूजा संग्रह-इसमें स्वर्गीय विजयानंद सूरिजी और उनके पधारी विजयव लभ सूरिजी महाराज रचित पूजाएँ हैं / मू० 15 रु. २-चारित्र पूजा-(विवेचन सहित ) आचार्य श्रीविजयवल्लभ सूरिद्वारा रचित / ३-पंच प्रतिक्रमण सूत्र-संपादक , , , मू० 1 // ) ४-एकादश गणधर पूजा-रचयिता ,, , , सदुपयोग ५-चौदह नियम ६-स्त्रीरत्न (प्रथम भाग) अनेक चित्रोंसहित। ७-शान्तिनाथ पूजा-(विवेचन सहित ) रचयिता आचार्य श्रीविजयवल्लभ मूरि महाराज / मू० सदुपयोग। ८-आदर्शजीवन-लेखक कृष्णलाल वर्मा / यह आचार्य श्रीविजयदलभ सूर महाराजका वृहद जीवनचरित्र है। पृष्ठ संख्या 768 चित्र संख्या 27 रेशमी कपड़ेको जिल्द ऊपर सुनहरी अक्षर / मूल्य मात्र 3 // ) साढ़े तीन साये / ग्रंथ मिलनेका पतामैनेजर ग्रंथ भंडार, हीराबाग, गिरगांव, बंबई। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com