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या हमारे जैन समाजकी क्या दशा हो रही है ? बस यह दिग्दर्शन मात्रही ऊपरके लेखका मतलब है । यदि निष्पक्ष हो तत्त्वदृष्टि देखा या सोचा जावे तो समाजकी अवनत अवस्थाका मुख्य कारण विद्याका अभाव ही है । जिस समयमें वस्तुपाल, तेजपाल, धनपाल, धनद, मंडन जैसे सत्ताधारी धनी गृहस्थ उच्चकोटिके विद्वान् होते थे उस समयमें उनकी श्रवणेच्छाको पूर्ण करनेवाले आचार्य उपाध्या -- यादि साधु समुदाय भी पूर्ण विद्वान् समयज्ञ सर्वावसर सावधान होता था। चाहे आचार्य ही क्यों न हो यदि वे अपने स्थानसे पतित हुए मालूम होते थे झटसे उनका बहिष्कार कर दिया जाता था तो अन्य सामान्य साधुके लिये तो कहना ही क्या ? * उस समय आजकलकी तरह प्रायः दृष्टिराग या सांसारिक नातेको लिए स्नेहराग नहीं होता था किंतु धर्मरागही होता था ।
मतलब जैनगृहस्थ पठित होते थे तो जैन नेता जैन साधुभी बड़े भारी साक्षर - पंडित - विद्वान होते थे । आज कल गृहस्थों में विद्याकी कमी हो गई है तो साधुओंमें भी इस कमीकी कमी नहीं है । क्या कोई जैननेता आचार्य उपाध्याय पंन्यास गणी साधु तथा धर्मात्मा धनी जैन
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* जिनमाणिक्यसूरि (वि० सं०१५८३ - १६१२ ) के समय की लिखी हुई पट्टावली और बीकानेरक यति क्षमा कल्याणजीकी बनाई हुई: पट्टावलीसे विदित होता है " कि जिनराज सूरिके पट्टपर पहले जिनवर्द्धन सूरिको स्थापित किया था परंतु उनके विषयमें यह शंका होनेपरकि उन्होंने ब्रह्मचर्य भंग किया है उनके स्थान पर जिनभद्रसूरिको स्थापित किया गया था । ( पृष्ठ ९५ ना. प्र. प. भाग ४ अंक ९ )
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