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(२०) सवि जिनवर केरा साधु मांहे वडेरा । दुगवन अधिकेरा चउद सयसु भलेरा ॥ टाल्या दुरित अंधेरा वंदिये ते सवेरा । गणधर गुण घेरा नाम छे तेह मेरा ॥२॥ सवि संशय कापे जैन चारित्र छापे । तब त्रिपदी आपे शिष्य सौभाग्य व्यापे ॥ गणघर पद थापे द्वादशांगी समापे । भक्दुख न संतापे दास ने इष्ट आपे ॥ ३ ॥ करे जिनवर सेवा जेह इंद्रादि देवा । समकित गुण मेवा आपता नित्य मेवा ॥ भवजलधि तरेवा नौ समी तीर्थ सेवा। ज्ञान विमल लहेवा लील लच्छी वरेवा ॥ ४ ॥
[ मालिनी]
इस पजामें श्रीज्ञानविमल मरिनी कृत ११ गणधर देववंदनका आलंबन लिया गया है और इसी कारण रचयिताने कृतज्ञता सूचन निमित्त उन महात्माका अर्थात् श्री ज्ञानविमल सरिजीका शुभ नाम प्रतिपजामें अंकित किया है । भूलचकके लिए क्षमाका प्रार्थी
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