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( २६ )
सुखी एक एक दुःखी राव एक एक रंका, धनी एक मरोडे मुछ फिरे बन बंका |
एक ठाकर चाकर एक एक जग रोगी, एक रोग रहित एक सोग रहित एक सोगी ॥ भोगी जग भोग रहित निर्धन अभिमानी । विनकर्म ०१ ॥ जनमत कइ लूले अंध अपाज कहावे, कह दो दस आदि बाद वरसमें थावे | कइ सधवा विधवा नार पुरुष कइ रंडे, कइ मंडे निज घर बार कई जग खंडे ॥ इम विध विध यह संसार सरूप कहानी । विनकर्म ०२ || रूपी जंग करम अरूपी आतम कैसे, बने मेल नहीं चंदन आकाशका जैसे ।
यह बात भी जोग नहीं जग ज्ञान अरूपी,
मद्य ब्राह्मीसे उपघात अनुग्रह रूपी ॥ वेदादि आगम बात करमकी बखानी । विनकर्म० ३ ॥
इत्यादि अग्निभूति सुनी प्रभु वानी, तज दीनो निज अभिमान प्रभुको मानी । सच्चे प्रभु तुम हो ज्ञानी हूँ मैं अज्ञानी, धन्य इंद्रभूति जिन आप किये गुरु ज्ञानी ॥ दीजे दीक्षा मुझ पाऊँ पद निरवानी । विनकर्म० ४ ॥ दीक्षा दीनी प्रभु गणधर पदवी साथे,
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