Book Title: Vasant Vilas Fagu
Author(s): Madhusudan Chimanlal Modi
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 66
________________ . १२६ [पद्य १२३-१२७ [६] हरिण हरावइ जोतीय मोतीय नां शरि जाल । रंगि निरूपम अधर रे अधर कियां परवाल ॥ १२३ अधरं किल विम्बनामकं फलमाभ्यामिति भव्यमन्वयम्। लभतेऽधविम्बमित्यदः पदमस्या रदनच्छदं वदत् ॥ १२४ [६३] तिलकुसुमोपम नाकु रे लांकु रे लीजइ {ठि। किशलय कोमल पाणि रे जाणि रे चोल मजीठ ।। १२५ तिलकुसुमसमानां विभ्रती नासिकां च द्विजसुरगुरुपूनां श्रद्दधाना सदैव । कुवलयदलकान्तिः कापि चाम्पेयगौरी विकचकमलकोशाकारकामातपत्रा ॥ [६४] बाहुलता अतिकोमल कमलमृणाल समान। . जीपई उदरि पंचानन आनन नही उपमान ॥ १२७ 123. a. क. हिरण हरावई; मोतीय is wrongly written twice in the ms. ख. मोतीय ना शर जालि; र of शर is written almost like न in ms. ग. हरणि हरावइ जोअती मोतीअ ना शिर जाल; घ. हरिण हरावए जोतीय मोतीय नो सिरि जाल. b. क. अंगि for रंगि, and जिस्यां for कियां; परिवाल for परवाल; ग. रंगिई निरूपम अधर रे अघर कीआ ति प्रवाल; घ. रंगि निरूपम अधर रे अधर कियां परवाल. घ. 0G. St 62. 124. क, ख, ग have the same verse in common; all the Mss. have this verse from age. corruptly written. & posesses altogether a different stanza which is as under: . वाचं संवृणु हे पिक द्रुतमिह त्वं हंस खजीभव व्याकोशं विजहीहि पङ्कज भज वं भदैनिद्रां मृग । . . वैवण्ये व्रज राजचम्पक यतः साभ्यति मे प्रेयसी • यद् वक्त्रेण कलज्ञितप्रतिकृतिः स्पर्धा दधानः शशी ॥ This is घ. Sk. St. 62. 125. a. ग. तिलकुसुमोपम नाक रे लांक रे लीजइ मूठि; घ. लांकु जि लीजए मूंठि; b. क. किशिलय; ख. मंजीठ; ग, किसलय कोमलं पाणि रे; घ. किसल जि कोमल पाणि रे जाणि रे चोल मंजीठ. घ. OG. St.. 63. 126. क, ख, ग have the same verse in common; while घ. Sk. St. 63. is also the same stanza. 127. b. ख. नहीं उपमानु; ग. जीपइ...आन नही उपमान; घ जीपद उदरि पंचानन आन नहीं उपमान. Cf. also the additional verses found in घ. in the reading-note No. 119, especially the second line of the घ 00. St 55, which is the same as the printed text, od. St. 64. b. ।

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