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चौबी०
छन्द.पद्धड़ी-जय जय श्रेयांस तुम गुण अनंत, गणधर वरणत पावे न अंत । अतिशय दश पूजन सहित जाए जिनंद, पित मात तबै बाढो अनंद ॥ २ ॥ संहनन आदि संस्थान सार, शुभ लक्षण बल संग्रह" बीरज अपार । हित मित कारी तुम वचन जोय, सित श्रोणित तन में मलन होय ॥३॥वपु सहित । ५०६ । सुगंध न स्वेद होत, तुम रूप देख रबि लजत जोत। फिर समवसरन में दश लहाय, चतुरानन छवि
वरनी न जाय ॥ ४॥ जय आप करत नभ में विहार, सब जीव लहें साता अपार । सत योजन लोय सुभिक्ष थाय,उपसर्ग रहित छाया विहाय ॥ ५॥ सब विद्या के ईश्वर महान, नख कच बाढत न अहार मान। यष झपत नहीं भृकुटी नसाय, धनधान्य जीव तुम दरश पाय ॥६॥ अमरन कृत चौदह तित सुजान, अवनी दीषत दर्पण समान । षट् ऋतु के फूल दिपैं अपार, सब जंतु मित्रता भाव धार। , ॥७॥ बाजत समीर त्रय गुण समेत,बारिज वर्णन तल छबि सुदेत । दिश निर्मल सब आनंद कंद,
गंधोदक वरषत मंद मंद ॥ ८॥ है मागधि भाषा अति महान, सब फले अठारह भेद नाम । मल । बर्जित सुर नभ जय करत, शुभ धर्म चक्र आगे चलंत ॥९॥ वसु मंगल द्रव्य समेत एव, चौंतिस ।। अतिशय कर सहित देव । जय अष्ट प्राति हारज दिपंत, हग शर्म ज्ञान बीरज अनंत ॥१०॥ इम
छियालीस गुण सहित ईश, विहरत आये सम्मेद शीस। तहां प्रकृति पिचासी छीन कीन, शिव जाय '! विराजे शर्म लीन ॥११॥ गुण अगुर लघु आदिक लहाय,उत्पादक व्यय ध्रुव सब लखाय । बखतावर " रतन कहें बनाय, मम संकट में हूजे सहाय ॥ १२ ॥