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पद्धडी छन्द-जय केवल ब्रह्मा विराजमान, सब योगीश्वर ध्यावें महान । तुम छालिस गुण न|| पुरण जिनेश, परमातम आतम श्रीमहेश ॥३॥ भव वारिधि तारन को तरंड, तुम हनो ब्रह्मसुत अति
| प्रचंड । शरणा गत पालन को दयाल, सुर आवत तुम पद नमत भाल ॥४॥ तुम अजर अमर पद | देन हार,भव तारण को तुम बिरद सार । जय राग द्वेष मद मोह चूर, जयऽनंत चतुष्टय गुणन पूर॥५॥ जय चतरानन दीखत जिनंद, जय चौंसठ चमर ढरें अमंद । जय द्वादश सभा बिराजमान, गणईस अठाइस हैं निधान ॥६॥ ते झेलत हैं बाणी त्रिकाल, भवि सुन कर टारत मोह जाल। जय संघ सुचार प्रकार एव, तिन सहित सो विहरत आप देव ॥७॥ दो शतक घाट उनतिस हजार, मुनि राज महा गुण के भंडार । जे धरत श्वेत साडी प्रमान, अजया पचपन सुहजार जान ॥८॥ इक लक्ष शरावक धर्म लीन, धार सम्यक् सबही प्रबीन। लख तीन जुश्रावकनी उदार,मिथ्यात्व त्याग चित बरत धार ॥९॥ देवी अर देव समूह आय; तिनकी संख्या बरनी न जाय । संख्याते हैं तिथंचजोन, तज वैर भाव धारें सु मौन ॥ १०॥ इन आदिक को भव पार लाय, सम्मेद शैलते शव लहाय । हम याचत हैं तम पैसदेव, भव भव में पाऊचरण सेव ॥११॥ यह मोकों हे किरपा निधान, दीजेजु अनुग्रह चित्त !! ठान । बखता रतना को भृत्य जान, मेरी बिनती कीजे प्रमान ॥ १२ ॥ .. | धत्ता छन्द-वरणत गुण थारे गण धर हारे मल्लि जिनेश्वर काम हरं। भव दधितें तारो सुख विस्तारो ||