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( २० ) काव्य के ही प्रयोजन बताये हैं और, उन्हीं को उसका पर होने के कारण इसका भी प्रयोजन मान लिया है-जैसा कि साहित्यदर्पणकार स्पष्ट शब्दों में कहते हैं
'अस्य ग्रन्थस्य काव्यातया काव्यफलैरेव फलवत्वमिति काव्यफलान्याहइत्यादि।
परन्तु कुन्तक ने अलङ्कारप्रन्य का अलग प्रयोजन और अलङ्कार्य काव्य का प्रयोजन अलग से बताया है
अलङ्कार प्रन्थ का प्रयोजन है-'असामान्य श्राह्लाद को उत्पन्न करने वाले वैचित्र्य की सिद्धि' । अर्थात् कुन्तक ने अपने ग्रन्थ का निर्माण उक्तरूप वैचित्र्य की सिद्धि कराने के लिए किया है। अन्य प्राचीन प्राचार्यों के प्रन्थों में कहीं भी ऐसे वैचित्र्य की सिद्धि नहीं हुई। -“यद्यपि सन्ति शतशः काम्यालवारास्तथापि न कुतश्चिदप्येवंविधवैचित्र्यसिदिः ।" तथा प्रन्यस्यास्य'"उक्तरूपवैचित्र्यसिद्धिः प्रयोजनम् । (पृ० ७-८)
इस प्रकार अलङ्कार प्रन्य का प्रयोजन बताने के बाद वे उसके अलङ्कार्यभूत काव्य का प्रयोजन बताते हैं क्योंकि विना अलङ्कार्य के प्रयोजन के अलङ्कार सप्रयोजन होते हुए भी बेकार होता है। काव्य के प्रयोजन को उन्होंने क्रमशः प्रथम उन्मेष की तीसरी, चौथी और पाँचवीं कारिका में प्रतिपादित किया है
१. काव्य का पहला प्रयोजन तो यह होता है कि वह धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष रूप पुरुषार्थचतुष्टय की सिद्धि का उपाय होता है । शास्त्रादिक से इसका वैशिष्टय यह होता है कि शास्त्रादि कठोर क्रम से अभिहित होने के कारण सुकुमारमति, एवं क्लेशभीरू राजकुमारादिकों के लिए श्राह्लादकारक नहीं होते जब कि काव्य सुकुमार क्रम से अभिहित होने के कारण हृदयाहादकारक होता हुआ पुरुषार्थचतुष्टय की सिद्धि का उपाय होता है। जैसा कि कुन्तक अन्तरश्लोक द्वारा आगे कहते हैं:-....
___ कटुकोषधवच्छास्त्रमविद्याव्याधिनाशम् ।
- आहाद्यामृतवत्काव्यमविवेकगदापहम् ॥ २. काव्य का दूसरा प्रयोजन है उसका समुचित व्यवहार का बोध कराने में सहायक होना । प्रत्येक मनुष्य को सत्कायों में वर्णित राजा, अमात्य, भृत्यादि • के व्यवहारों से उनके लिए अनुकरणीय उचित व्यवहार का ज्ञान होता है ।
३. काव्य का सर्वातिशायी, यहाँ तक कि पुरुषार्थचतुष्टय के आस्वाद का भी अतिक्रमण कर जाने वाला, तीसरा प्रयोजन है उसके प्रास्वाद से (जो अमृतरसास्वाद के समान होता है ) सहृदयों को तत्काल प्रानन्द की अनुभूति कराना। कुन्तक का कहना है-'योऽसौ चतुर्वर्गफलास्वादः प्रकृष्टपुरुषार्थतया सर्वशास