Book Title: Vakrokti Jivitam
Author(s): Radhyshyam Mishr
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ ( १८ ) ५. यदि 'काव्यालङ्कार' और 'वक्रोक्तिजीवित' अलग-अलग सञ्ज्ञायें क्रमशः कारिका और वृत्ति भाग की होती तो निश्चय ही प्रत्येक उन्मेष की कारिकाओं की समाप्ति पर भी - " इति श्रीराजानककुन्तकविरचिते 'काव्यालङ्कारे' प्रथम उन्मेषः, द्वितीय उन्मेषः ", आदि उपलब्ध होता । परन्तु ऐसा कहीं भी उपलब्ध नहीं होता । यदि डा० साहब यहाँ यह सन्देह प्रकट करना चाहें कि प्रथम उन्मेष की समाप्ति पर - 'इति श्रीराजानककुन्तकविरचिते वकोक्तिजीविते काव्यालङ्कारे प्रथम उन्मेषः' प्राप्त होता है। यहाँ 'वक्रोक्तिजीवित' से तात्पर्य वृत्तिभाग से है और 'काव्यालङ्कार' से आशय कारिका ग्रन्थ से है तो यह ठीक नहीं। क्योंकि द्वितीय उन्मेष की समाप्ति पर केवल - 'इति श्रीमत्कुन्तकविरचिते वक्रोक्तिजीविते द्वितीय उन्मेषः' तथा तृतीय उन्मेष की समाप्ति पर 'इति कुन्तकविरचिते वक्रोक्तिजीविते तृतीयोन्मेषः समाप्तः' ही उपलब्ध होता है वहाँ 'काव्यालङ्कार' की कोई चर्चा ही नहीं है । ६. साथ ही यदि कुन्तक के कारिका ग्रन्थ का नाम 'काव्यालङ्कार' होता तो उन्हें बाद के सभी श्राचार्य केवल 'वक्रोक्तिजीवितकार' के रूप में ही क्यों याद करते, कम से कम इनकी कारिकाओं को उद्धृत करते समय 'काव्यालङ्कार' के नाम से अथवा 'कुन्तकविरचिते काव्यालंकारे' इत्यादि के द्वारा स्मरण करते । श्वतः यह मन्तव्य कि इनके कारिका ग्रन्थ का नाम 'काव्यालङ्कार' और वृत्तिग्रन्थ का नाम 'वक्रोक्तिजीवित' था सर्वथा असमीचीन है । -" अब रही बात यह कि कुन्तक की इस कारिका और उसके वृत्तिभाग का फिर अर्थ क्या है यह अत्यन्त सुस्पष्ट है । अलङ्कार से तात्पर्य है अलङ्कारों का प्रतिपादन करने वाला ग्रन्थ या अलङ्कार प्रन्थ । इस प्रकार कारिका का अर्थ हो जायगा कि कुन्तक काव्य के अलङ्कास्प्रन्थ का निर्माण कर रहे हैं। क्योंकि कुन्तक स्वयं बड़े स्पष्ट ढंग से इस बात को उसी वृत्तिभाग में कहते हैं ‘अलङ्कारः-शब्दः शरीरस्य शोभातिशयकारित्वान्मुख्यतया कटकादिषु वर्तते, तत्कारित्वसामान्यादुपचारादुपमादिषु तद्वदेव च तत्सदृशेषु गुणादिषु तथैव च तदभिधायिनि प्रन्थे ।' यहाँ यदि कुन्तक को 'अलङ्कार' का अर्थ- 'अलङ्कार प्रतिपादक प्रन्य' न अभिप्रेत होता तो इतनी लम्बी-चौड़ी अलङ्कार शब्द की व्याख्या की कोई आवश्यकता नहीं थी। क्योंकि गुण इत्यादि को तो दण्डी, वामन आदि सभी पूर्वाचार्य अलङ्कार शब्द द्वारा व्यवहुत कर ही चुके थे उसे

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 ... 522