Book Title: Vakrokti Jivitam
Author(s): Radhyshyam Mishr
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 12
________________ ( १७ ). quite clear on this point-तदयमर्थः । प्रन्यस्यास्य अलकार इत्यभिधानम्, उपमादिप्रमेयजातमभिधेयम्, उक्तरूपवैचित्र्यसिद्धिः प्रयोजनमिति ।" H. S. P. (p. 225-26) वस्तुतः डा. साहब का यह मत समीचीन नहीं प्रतीत होता । क्योंकि १. यदि कुन्तक ने अपने कारिकाप्रन्थ का नाम 'काव्यालङ्कार' रखा होता तो सम्भवतः कारिका इस प्रकार लिखते- 'काव्यालङ्कार इत्येष कोऽप्यपूर्वो विधीयते' जैसे कि अपने ग्रंथों का 'काव्यालंकार' नाम रखनेवाले भाचार्यों ने लिखा है-भामह लिखते हैं____'काव्यालङ्कार इत्येष यथाबुद्धि विधास्यते' (101), तथा रुद्रट लिखते हैं 'काव्यालङ्कारोऽयं प्रन्थः क्रियते यथायुक्ति' (१२)। रही बात उद्भट की तो उन्होंने कहीं अपने ग्रंथ के नाम का निर्देश ही नहीं किया, और फिर उनके प्रन्थ का नाम 'काव्यालंकार' नहीं बल्कि 'काव्यालङ्कारसंग्रह' था। जैसा कि 'प्रतीहारेन्दुराज कहते हैं विद्वदप्रयान्मुकुलकादधिगम्य विविच्यते । प्रतिहारेन्दुराजेन काव्यालङ्कारसंग्रहः ।। अन्यथा डा. साहब को अपने उक्त कथन में वामन का भी नामग्रहण करना चाहिए था क्योंकि उनके भी अन्य का नाम तो 'काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति' है। २. यदि कुन्तक को प्रन्थ का नाम 'काव्यालङ्कार' ही अभिप्रेत होता तो वे . वृत्ति में-'अलङ्कारों विधीयते अलङ्करणं क्रियते । कस्य-काव्यस्य, कवेः कर्म .. काव्यं तस्य' न कहते । बल्कि यह कहते कि 'काव्यालङ्कार' इति प्रन्थः क्रियते ।' ३. साथ ही जिस कथन के आधार पर डा. साहब उस प्रन्थ का नाम काव्यालङ्कार कहते हैं वह स्वयम्"प्रन्थस्यास्य अलङ्कार इत्यभिधानम्' न होकर 'प्रन्थस्यास्य काव्यालङ्कार इत्यभिधानम्' होता। ४. फिर कुन्तक के इस कान-ननु च सन्ति चिरन्तनास्तदलङ्काराः' की । सति भी नहीं बैठेगी। क्योंकि इसका मतलब यह होगा कि कुन्तक ने केवल भामह तथा रुद्रट के अन्य के अतिरिक्त किसी अन्य ग्रंथ ( जैसे दण्डी का काण्यादर्श, आनन्द का ध्वन्यालोक आदि ) के विवेच्य की ओर ध्यान ही नहीं दिया। उन्होंने अपने को केवल 'काव्यालङ्कारों तक ही सीमित रखा। और ऐसा अर्थ करना सर्वथा अनुपयुक्त होगा क्योंकि कुन्तक ने स्थल-स्थल पर दण्डी तथा मानन्द दोनों की आलोचना की है।

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