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( १६ ) कुन्तक प्रत्यभिज्ञा-दर्शन के अनुयायी थे
प्रन्थ के प्रारम्भ में वृत्तिभाग का प्रारम्भ कुन्तक शिव की वंदना करते हुए करते हैं--उनके शिव शक्तिपरिस्पन्दमात्रोपकरण वाले हैं-- जगत्रितयवैचित्र्यचित्रकर्मविधायिनम् । शिवं शक्तिपरिस्पन्दमात्रौपकरणं नमः ।
प्रत्यभिज्ञादर्शन में शिव को ही एकमात्र परम तत्व स्वीकार किया गया है। इस सम्पूर्ण जगत्प्रपञ्च की रचना करने के लिए केवल उनकी शक्ति का परस्पन्द ही पर्याप्त है। उन्हें किसी अन्य उपकरण की आवश्यकता नहीं पड़ती। शक्ति और शक्तिमान शिव में पूर्ण अभेद है। इसी बात को कुन्तक मार्गों का विवेचन करते समय स्ययं कहते हैं-- 'शक्तिशक्तिमतोरभेदात्' (पृ. ९९)। साथ ही उनके अन्य में आये हुए अनेक प्रयोगों से यह बात स्पष्ट होती है कि वे प्रत्यभिज्ञादर्शन के अनुयायी थे। इसका और विवेचन हम आगे करेंगे । . इसके अनन्तर कुन्तक प्रथम कारिका में वायूपा सरस्वती की वन्दना प्रस्तुत करते हैं। ग्रन्थ का अभिधान, अमिधेय और प्रयोजन
अभिधान--सरस्वती की वन्दना के अनन्तर प्रन्यकार द्वितीय कारिका-- . लोकोत्तरचमत्कारकारिवैचित्र्यसिद्धये ।
काव्यस्यायमलङ्कारः कोऽप्यपूर्वी विधीयते ॥ के द्वारा अभिधानादि का प्रतिपादन करते हैं। - इस कारिका एवं इसके वृत्तिभाग ने महामहोपाध्याय डॉ. काणे आदि । को इस.निष्कर्ष पर पहुँचाया है कि कुन्तक ने कारिकाभाग का नाम काव्यालङ्कार और इत्तिमाग का नाम वक्रोक्तिजीवित रखा था।
"It appears that faci% moant tho Kärikās alone to be called काम्यालद्वार as the Karika of the first उन्मेष states 'लोकोत्तर' (इत्यादि ): The वृत्ति on this says मनु च सन्ति -चिरन्तनास्तदलकारास्तकिमर्थमित्याह- अपूर्वः तद्व्यतिरिकार्थाभिधायी । ... ... कोऽपि अलौकिकः सातिशयः । लोको ... ... सिद्धये-असामान्यहादविधायिविचित्रभावसम्पत्तये । यद्यपि सन्ति शतशः काम्यालङ्कारास्तथापि न कुतश्चिदप्येवंविधवैचित्र्यसिद्धिः । It my be noticed that the works of भामह, उद्भट and रुद्रट were called काव्यालबारs. Though the कारिकाs thus appear to have been meant to be called काव्यालङ्कार, the whole work has . been referred 10 by later writers as alles sifaa. The afer is