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जशविलास ए० ॥१॥ता सुख ग्रहवेकुं मुनि मन खोजत, मन मंजन कर ध्यायो । मनमंजरी जश, प्रफुल्लीत दसा लश्, तापर जमर लोजायो ॥ ए० ॥२॥नमर श्रनुन्जव नयो, प्रजुगुन वास लह्यो ॥चरन करन तेरो, अलख लखायो ॥ एसी दशा होत जब, परम पुरुष तब, पकरत पास पठायो ॥ ए० ॥३॥ तब सुजस नयो, अंतरंग आनंद लह्यो, रोम रोम सीतल न. यो, परमात्म पायो ॥ अकल स्वरूप नूप, कोऊ न परखत कूप, सुजस प्रनु चित श्रायो ॥ ए० ॥४॥
॥पद बासठमुं॥ ॥ राग ध्रुपद ॥ केसे देत कर्मनकुं दोस, मन निवहे वेहे श्रापुकानो ॥ ग्रहे राग अरु दोष ॥के०॥ विषयके रस श्राप नूलो, पाप सो तन ठोस ॥॥१॥ देवधर्म गुरुकी करी निंदा, मिथ्यामतके जोस ॥के ॥२॥ फल उदय नइ नरक पदवी, नजोगे केको संग ॥ के० ॥३॥ किए श्रापुं कर्म जुगतें, अब कहा करो सोस ॥॥॥ फुःख तो बहु काल वीत्यो, लहे न सुख जल श्रोस०॥ के० ॥५॥क्रोध मान माया खोन, जस्यो तन घट गेस ॥ के० ॥६॥चेत चेतन
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