________________
१७
ज्ञानविलास हुँ हरानी, तूं मत रीस चढावेरे ॥ हुं० ॥१॥"ए. तला काल नपुंसक जानी, मंदिरमाह रहावे रे॥ सघलाइ मानसने तूं ठेले, एहि अचंनो आवे रे॥ टुं० ॥२॥ श्रासपास ना श्रमने देखी, कुटिला नाव जनावे रे ॥ वल्वन सांजल मोकुं बांके, मोरी हुरमत जावे रे ॥ हुं० ॥३॥ तूं तो निरलज नयो मतवालो, थारी कवन चलावे रे ॥ अम वहन ज्ञानानंदसाथें, अंगोअंग मिलावे रे ॥हुं०॥४॥इति॥
॥ पद बत्रीशमुं॥ ॥राग वसंत ॥ योगी यासे चित्त रमायो, याकी गति करत हूँ ॥ यो ॥ टेक ॥ मेरो तो योगी बालो नोलो, बरमचारी मन नायो यो॥ जो यह देखे सोश लोजावे, मतवालो जग जायो॥ यो॥१॥ योगी खातर घर घर जटकी, यह योगी अब पायो ॥ योग ॥ श्रमनें वक्षन याकुं मान्यो, मेरो चित्त लोजायो । यो ॥२॥ निरलोजी निकलंकी योगी, योगी योग रमायो ॥ योग॥ निधि चारित ज्ञानानंद मूरति ॥ प्राण पियारो पायो ॥ यो ॥ ३ ॥ इति ॥
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org