________________
जशविलास ही श्राश्रव मूल ॥ एही करम बढायकेंरे,करे धर्मको नूल ॥ चे॥१२॥ ग्यान सरूपी आतमारे, करेग्यान नहिं थोर ॥ अव्यकर्म चेतन करै रे, एह व्यवहारकी दोर ॥ चे ॥ १३ ॥ करतां परणामी अव्य रे, कर्मरूप परिणाम॥किरिया परजयकी फिरतरे,वस्तु एकत्रय नाम ॥चे॥ १४ ॥ करता कर्म क्रिया करेरे, क्रिया करम करतार ॥ नाम नेद बहुविध नये रे, वस्तु एक निर्धार ॥ चे० ॥ १५ ॥ एक कर्म कर्तव्य. तारे, करे न करता दोय ॥ तेसें जस सत्ता सधिरे, एक नावको होय ॥ चे० ॥ १६ ॥ इति ॥
॥पद अडसम्मुं॥ ॥राग धन्याश्री ॥ जबलग उपसमनांहिं रति, तब लगे जोग धरे क्युं होवे, नाम धरावे जति ॥ जब० ॥१॥ कपट करे तुं बहु विध जाते, क्रोधे जले
बति ॥ ताको फल तुं क्या पावेगो, ग्यान विना नां. -हिं बती ॥ जब० ॥२॥ नूख तरस ओर धूप सहतु
हे, कहे तु ब्रह्म व्रति ॥ कपट केलवे माया मंमे, म. नमें धरे व्यकती॥ जब ॥३॥जस्म लगावत गढो रहेवत, कहत हे हुँ वसति ॥ जंत्र मंत्र जमी
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org