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विनय विलास चतुरनर॥नहिंतो गरव न वहियें॥ चतु॥ एटेक॥ जीव दया पालक रंगीलो,थावियो तुम काम ॥अंगुल लघुयुग गुरु सरवाले, निधिश्रदर तस नाम ॥चतु०॥ ॥२॥ घनरिपु तसरिपु तसरिपु सेवक, मंदिर नंदन जेह ॥ तरुणो पण निज दारि खोले, खेले नित नेह ॥ चतु॥३॥ रोग रहित काया अति निमल, पण तस एक विकार॥ पी पीश्ने नाके नाखें, न रहे पेटें थाहार ॥ चतु ॥॥ तात सहोदर तास नपुंसक, पासे बेतुं सोहे ॥ विनय नणे जे अर्थ कहे ते, पंमितनां मन मोहे ॥ चतु०॥५॥ इति ॥
॥ पद पचीशमुं॥ ॥ राग श्राशावरी ॥ साधु नाश् सोहे जैनका रागी, जाकी सुरत मूल धुन लागी ॥ सा॥टेक ॥ सो साधु श्रष्ट करमसुं जगडे, सुन बांधे धर्मशाला ॥॥ सोहं शब्दका धागासांधे, जपे अजंपा मा: ला ॥ साधु ॥१॥ गंगा यमुना मध्य सरसति, अधर वंहे जलधारा ॥ करीथ स्नान मगन हुश्बेठे, तोड्या कर्म दल नारा ॥ साधु ॥२॥ आप श्रज्यंतर ज्योति बिराजे, अंकनाल ग्रहे मूला ॥ पबिम
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