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उत्तराध्ययनसूत्रम
एवं तवं तु दुविहं जे सम्मं आयरे मुणी ।
से खिष्पं सव्वसंसारा विष्पमुच्च पण्डिए ॥ ३७ ॥ त्ति बेमि ॥
॥ तवमग्गं समत्तं ॥ ३० ॥
॥ चरणविही एकत्रिंशं अध्ययनम् ॥
चरणविहिं पवक्खामि जीवस्स उ सुहावहं । जं चरित्ता बहू जीवा तिष्णा संसारसागरं ॥ १ ॥
एगओ विरहं कुज्जा एमओ य पवत्तणं । असंजमे नियति च संजमे य पवत्तणं ॥ २ ॥
रागद्दोसे य दो पावे पावकम्मपवत्तणे ।
जे भिक्खू रुम्भई निचं से न अच्छइ मण्डले ॥ ३ ॥
दण्डाणं गारवाणं च सल्लाणं च तियं तियं । जे भिक्खू चयई निचं से न अच्छर मण्डले ॥ ४ ॥
दिव्वे य जे उवसग्गे तहा तेरिच्छमाणुसे । जे भिक्खू सहई सम्मं से न अच्छइ मण्डले ॥ ५ ॥
विगहाकसायसन्नाणं झाणाणं च दुयं तहा । जे भिक्खू वज्जई निचं से न अच्छइ मण्डले ॥ ६ ॥ वसु इन्दियत्थेसु समिईसु किरियासु य । जे भिक्खू जयई निञ्चं से न अच्छर मण्डले ॥ ७ ॥ . लेसासु छसु कापसु छक्के आहारकारणे । जे भिक्खू जयई निचे से न अच्छर मण्डले ॥ ८ ॥ पिण्डोग्गहपडिमासु भयट्ठाणेसु सत्तसु ।
जे भिक्खू जयई निचं से न अच्छा मण्डले ॥ ९ ॥ मदेसु बम्भगुत्ती भिक्खुधम्ममि दसविहे । जे भिक्खू जयई निश्चं से न अच्छइ मण्डले ॥ १० ॥ उवासगाणं पडिमासु भिक्खूणं पडिमासु य । जे भिक्खू जयई निचं से न अच्छर मण्डले ॥ ११ ॥
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