Book Title: Uttaradhyayan Sutram
Author(s): R D Wadekar, N V Vaidya
Publisher: Fergussion College

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Page 100
________________ ९७ पमायट्ठाणं [- ३२.३२ एए य संगे समइक्कमित्ता सुदुत्तरा चेव भवन्ति सेसा । जहा महासागरमुत्तरित्ता नई भवे अवि गंगासमाजा ॥ १८ ॥ कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स । जं काइयं माणसियं च किंचि तस्सऽन्तगं गच्छ बीयरागो ॥ १९ ॥ जहा य किंपागफला मणोरमा रसेज वण्णेण यं भुज्जमाणा । ते खुड्डए जीविय परचमाणा एओवमा कामगुणा विवागे ॥ २० ॥ जे इन्द्रियाणं विसया मणुना न तेसु भावं निसिरे कयाइ । न याऽमणुने मणं पि कुज्जा समाहिकामे समणे तवस्सी ॥ ३१ ॥ चक्लुस्स रूवं गहणं वयन्ति तं रागहेउं तु मणुनमाहु । तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु समो य जो तेसु स वीयरागो ॥ २२ ॥ अवस्स खक्खुं गहणं वयन्ति चक्खुस्स रूवं महणं वयन्ति । रामस्स हेउं समणुनमाहु दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु ॥ २३ ॥ रूवेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे से जह वा पयंगे आलोयलोले समुवेइ मच्चुं ॥ २४ ॥ जे यावि दोसं समुवेइ तिनं तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुइन्तदोसेण सएण जन्तू न किंचि रूवं अवरुज्झई से ॥ २५ ॥ पान्तरत्ते रुइरंसि रूवे अतालिसे से कुणई पओसं । दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले न लिप्पई तेज मुणी विरामे ॥ २६ ॥ रुवाणुगासाणुगए य जीवे चराचरे हिंसइ णेगरूवे । चित्तर्हि ते परितावे बाले पीलेइ अन्तट्ठगुरु किलिट्टे ॥ २७ ॥ रुवाणुवाएण परिग्गहेण उप्पायणे रक्खणसनिओगे । वर विओगे य कहं सुहं से संभोगकाले य अतित्तिलाभे ॥ २८ ॥ वे अतित्ते य परिग्गमि सत्तोवसत्तो न उवेइ तुट्ठि । अतुट्टिदोषेण दुही परस्स लोभाविले आययई अदत्तं ॥ २९ ॥ तहाभिभूयस्स अदत्तहारिणो रूवे अतित्तस्स परिग्गहे य । मायामुखं वडु लोभदोसा तत्थाऽवि दुक्खा न विमुञ्चई से ॥ ३० ॥ मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य पओगकाले य दुही दुरन्ते । एवं अदत्ताणि समाययन्तो रुवे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥ ३१ ॥ रुवाणुरत्तस्स नरस्स एवं कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि । तत्थोवभोगे वि किलेसदृक्खं निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ॥ ३२ ॥ [JTS-II. U. 7]

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