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दो शब्द
ईशकृपा से पुण्यनगर की पुनीत वसुंधरा पर इस समय पुण्यमय योग क्षेम को वहन कर रहा हूँ। करुणाई शील आचार्यदेव श्री विजयसमुद्रसूरीश्वरजी महाराज की असीमकृपा का पात्र बन श्री साधु-साध्वियों का ज्ञानपरामर्श-पुरुष हो गया हूँ। जन्म-जात ज्ञान का अधिकारी हूँ, शास्त्रों का पुजारी हूँ, शास्त्रज्ञों का चरणदुलारा हूँ, ज्ञान भाव की साधना कर गुरु भाव की गरिमा का आह्वान कर रहा हूँ| वाङ्मय मेरा आत्मप्रसाद है, चिन्मय मेरा मनोलोक है, प्रांजल-प्रतिमा मेरी विवेक-शीला संजीविनी जीवन-सिद्धौषधि है।
. एकदा भाद्रपद की भव्य गोधूलि वेला में मुझ को मुनिश्री पद्मविजयजी महाराज ने "उपदेश माला" पर 'दो शब्द' लिखने का आग्रह किया। यह ग्रंथ उपदेशों का सागर है, कथाओं का कमनीय लोक है। जीवन में बार-बार इस ग्रंथ के पठन-पाठन का योग मुझे मिलता आया है। अतः इस ग्रंथ का मेरे साथ सर्वथा संपूर्ण सौहार्द है।
चिन्मयी भारतभारती की चरणभूति में भवभूति बनने वाले भावुक भक्तों का भावोद्गार ही उपदेश है, आचार ही संदेश है, विवेक ही आदेश है। श्रमण संस्कृति के सपूत स्नेही क्षमाक्षमण श्री धर्मदास गणि एक आचार निष्ठ अनगार बनकर साहित्य लोक में आये और उपदेशक वृन्द श्रमण पुंगवों को ललकारा
सुट्ठवि उज्जममाणं पंचेव करिति रित्तयं समणं ।
अप्पथुई परनिंदा जिब्भोवत्था कसाया य ॥७२।। १. आत्मप्रशंसा, २. परनिन्दा, ३. जीभ की वाचालता, ४. गुप्तेन्द्रियअनियन्त्रणता और ५. कषायता इन पांच बातों से जो साधु दूर नहीं रहता है; वह अत्यंत परिश्रमी होता हुआ भी निर्धन है, खाली है, भरा हुआ नहीं। . . उपदेशक-ग्रंथो में तत्कालीन समाज का प्रतिबिम्ब है श्री धर्मदास गणि भी "उपदेश माला" में बहुश्रुत बनकर जीव का सर्वेक्षण करते हैं
राउ ति य दमगुत्ति य, एस सपागु त्ति एस येयविऊ । सामी दासो पुज्जो, खलो निधणो धणवइ ति ॥४६॥ ण वि इत्थ कोऽवि (य) नियमो, सकम्मविणिविट्ठसरिसक्यचिट्ठो । अन्नुन्नरूयवेसो, नडुब्व् परियत्तए जीयो ॥४७॥
यह जीव स्वामी भी बना, सेवक भी रहा, वेदों का ज्ञाता भी हुआ, पूज्य बना, पामर भी रहा, श्रीमान् बनकर चमका, धीमान् बनकर धमका, राजा बनकर