Book Title: Upasakdasha Shrutam
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 77
________________ 97 | साहस्सिएणं वएणं, धन्ना भारिया, सामी समोसढे, जहा आणन्दो तहेव पविजइ गिहिधम्म, जहा कामदेवो जाब समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तियं धम्मपणत्ति उयसम्पजित्ताणं विहरइ ॥ १५१ ॥ ___ अथ चतुर्थयारभ्यते, तदपि सुगमम, नवरं चैत्यं कोष्टकं, पुस्तकान्तरे कापमहावनम, पन्या च भार्या ॥ ११ ॥ तए णं तम्प सुरादेवस्स समणोवासयस्स पुवरत्तावरत्तकालसमयंसि एगे देवे अन्तियं पाउन्भनित्था॥ 2 से देवे एगं मह नीलुप्पल जाव असिं गहाय सुरादेवं समणांवासयं एवं वयासी. हं भो सुरादेवा ! समणो वासया ! अपत्थियपत्थिया ! जइ णं तुम सीलाई जाव न भञ्जसि, तो ते जेटुं पुत्तं साओ गिहाओ नीणेमि, | रत्ता तव अग्गओ घाएमि. रत्ता पञ्च सोल्लए करेमि, २त्ता आदाणभरियसि कडाहयंसि अइहेमि, ना तब गायं मंसेण य सोणिएण य आइञ्चामि, जहा णं तुम अकाले चेव जीवियाओ ववरोविजसि। एवं मझIP मयं, कणीयसं, एकेके पञ्च सोल्लया, तहेव करेइ, जहा चुलणीपियस्स, नवरं एकके पश्च सोल्लया ॥१५२॥ 12 तए णं से देवे सुरादेवं समणोवासयं चउत्थं पि एवं वयासी, हे भो सुरादेवा! समणोवासया ! अपस्थियपस्थिया! जाव न परिचयसि, तो ते अञ्ज सरीरंसि जमगसमगमेव सोलस रोगायले पक्खिवामि, तं जहा सासे SCRECOR-55

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