Book Title: Upasakdasha Shrutam
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Atmanand Jain Sabha
View full book text
________________
उपासक
हि य निप्पहपसिणवागरणे करेन्ति, सक्का पुणाइ अज्जो ! समणेहिं निग्गन्थेहिं दुकालमा गणिधिडगं ॥ ४२ ॥ अहिजमाणेहि अन्न उत्थिया अहेहि य जाव निप्पट्टपसिणा करित्तए ।। १७६ ।।
'गिहमझावसन्हा ति अन्यायसन्तो, णमितिवाक्यालङ्कारे, अन्पयूथिकान अर्थ :--जीवादिभिमभिसर्वाधि :अनयत्यतिरेकल पश्चनीवपदा कारगैः-उपपत्तियावरूपैः, व्याकरणैश्च-परेण भितस्योत्तरदान । 'निष्पपसिणKागरगेति' निरन्नानि स्पर्धा पकानि पश्रध्याकरणानि पे ते नि:स्पष्टपनल्याकरा, प्राकृतत्वादा निषिप्रश्नव्याकरणास्तान् इति । 'सका रणनि' शक्य हे आर्याः श्रमगैरन्ययूविका निःस्पष्टपश्नव्याकरणाः कर्तुम् ॥ १७६ ॥
लए णं समगा नि: या यनिग्गन्धीओ य समणस्स भगवओ महावीरस्स तह नियमईवणएणं पडि सुनिन ॥ १७४ : तए गं कुण्डकोलिए समणोवासए समणं भगवं महावार बन्दई नभाद. रता पसि गाई छद. २. समादियाइ, पला जामेव दिस पाउनभए, तामेव दिसंपडिगए सामी बहिया जणायामहाविहरता तस्स कण्डकोलियरस समणावासयस वहांहबोल जा माणस्स नाइस संरच्छराइव इवान्ताई, पणरसमस्स संबच्छरस्स अन्तरा बढमाणस्स अनया कयाइ जहा कामदेव तहा जपुत टवेतातहा पोसहलालाए जाव धम्मपएणति उवसम्पजित्ताणं विराएवं एक्का-10
GREENTER
-

Page Navigation
1 ... 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118