Book Title: Tulsi Prajna 1975 07
Author(s): Mahavir Gelada
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 14
________________ यत्पूर्व प्रभुणा कृतं सकविना श्रीशम्भुना दुर्गम । श्रीमद्राणपदाब्जभक्तिमनिशं प्राप्त्थ तु रामायणम् । मत्वा तद्रघुनाथनाम निरतं सान्तस्तमः शान्तये। भाषाबद्धमिदंचकार तुलसीदासस्तथा मान सम् ।। कतिपय टीकाकारों ने 'कृतं सुकविना श्रीशम्भुना' से संकेतार्थ निकाला है कि सुकवि स्वयंभू ने पहले जिस दुर्गम रामायण की सृष्टि की थी, उसी को तुलसी ने 'मानस' के रूप में भाषाबद्ध कर दिया। डा० संकटा प्रसाद उपाध्याय (कवि स्वयंभू) की भी सम्मति है कि स्वयंभू ने तुलसी को प्रभावित किया था परन्तु वे धार्मिक बाधा के कारण स्वयंभू का नामोल्लेख नहीं कर सके । तुलसी वर्णाश्रम-विरोधी किसी अन्य धर्म अथवा उसके उन्नायक कवि का नाम नहीं लेना चाहते थे। ___ स्वयंभू-रामायण तथा तुलसी मानस में अनेक स्थलों में साम्य दिखायी पड़ता है। स्वयंभू ने अपने काव्य-सरिता वाले रूपक में लिखा है कि अक्षर-व्यास के जल-समूह से मनोहर, सुन्दर अलंकार तथा छंद रूप मछलियों से आपूर्ण और लम्बे समास रूपी प्रवाह से अंकित हैं । यह संस्कृत और प्राकृत रूपी पुलिनों से शोभित देशी भाषा रूपी दो कलों से उज्ज्वल है। इसमें कहीं-कहीं धन शब्द रूपी, शिलातल है। कहीं-कहीं यह अनेक अर्थ रूपी तरंगों से अस्त-व्यस्त सी हो गई है। यह शताधिक आश्वास रूपी तीर्थों से सम्मानित हैअक्खर-बास-जलोह मरणोहर । सु-अल कार छन्द मच्छोहर ।। दीह समास पवाहावंकिय । सक्कय-पायष-पुलिरणा लंकिय ।। देसी-भासा-उभय-तडुज्जल । कवि दुक्कर-घण-सद्द-सिलायल ।। अत्थ वहल-कल्लोलारिण ट्ठिय । आसासय-सम-तूह-परिट्ठिय ।। तुलसी का काव्य-सरोवर-रूपक इस प्रकार हैसप्त प्रबन्ध सुभग सोपाना । ग्यान नयन निरखत मन माना ।। रघुपति महिमा अगुन अबाधा । वरनव सोइ वर वारि अगाधा ।। राम सीय जस सलिल सुधासम । उपमा बीचि विलास मनोरम ।। पुरइन सघन चारु चौपाई। जुगुति मंजु मनि सीय सृहाई ॥ छन्द सोरठा सुन्दर दोहा । सोइ बहुरंग कमल कुल सोहा ।। अरथ अनूप सुभाव सुभासा । सोइ पराग मकरन्द सुबासा ।। सुकृत पूज मंजुल अलि माला। ग्यान विराग विचार मराला ।। धुनि अवरेब कवित गुन जाती। मीन मनोहर जे बहु भांती । अरघ धरम कामदिक चारी। कहब ज्ञान विज्ञान विचारी ।। नवरस जप तप जोग विरागा । ते सब जलचर चारु तड़ागा ।। 'पउम चरिउ' में राम कथा का श्रीगणेश श्रेणिक की शंका से होता है । परमेसर पर-सासरोहिं सुव्वइ विवरेरी। कहें जिण-सासणे केम थिय कह राघव-केरी तुलसी प्रज्ञा-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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