Book Title: Tulsi Prajna 1975 07
Author(s): Mahavir Gelada
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 52
________________ रेखाएं खींचनी पड़ती हैं । यही कारण है afe रात्रि भोजन निषेध में चारों आहार वा, औषध पानी सभी का निषेध है जब कि न पचने के कारण अगर निषेध करना था तो केवल खाद्य या कुछ पेय चीजों का निषेध ही पर्याप्त था पर वैसा करने पर अपरिपक्क मुनि समझ लेते कि जब एक चीज खानी है तो दूसरी में क्या दोष है ? फिर सभी चीजों का प्रयोग करने लग जाते इसलिए समग्रतया निषेध किया गया है लेकिन यह निश्चित है कि इस निषेध का आन्तरिक संबंध अपरिपाक जनित अस्वा सन्दर्भ १ मेहं पिवलिआओ हरणंति वमणं च मच्छिआ कुरणई जुआ जलोदरत्त' कोलिओ कुटु रोगं च वालो सरस्स भंग कंटा लग्गई गलम्मि दारु च तालुम्मि विधद अली वंजरण मज्झम्भि भुजतो स्थ्य और अस्वास्थ्य से निष्पन्न साधना को विधन से है । दिगम्बर श्रावक जो रात्रि भोजन का प्रत्यास्थान रखते हैं फिर रात में वे फल व दूध लेते हैं । इसका मतलब यही है कि दूध एवं फल हल्का भोजन होता है वह सूर्यास्त के बाद भी पच सकता है। सूर्यास्त के बाद अन्न आदि भारी भोजन न तो वे खुद करते हैं न शादी में आई हुई बारात आदि को ही देते हैं । यह भी इसी बात को सूचित करता है कि रात्रि भोजन का वर्जन परिवाक और अपरिपाक की दृष्टि से हुआ है । २ उलूक, काक, मारि, गृध्र, शम्बर, शुकरा: अहि, वृश्चिक, गोधाश्च जायन्ते रात्रि भोजनात् । ३ एक भक्ताशना नित्यं, अग्निहोत्र फलं लभेत् अनस्त भोजनो नित्यं तीर्थयात्रा फलं लभेत् ( स्कन्ध पुराण) ४ मृते स्वजन मात्रवि, सूतकं जायते किल अस्तं गते दिवानाथे - भोजन क्रियते कथं । ५रा भत्ते सिसाणेय [ दश. अ. ३ श्लो. २] ६ अत्थं गम्म आदूरचे, फरत्थाय अगुग्गए आहार मादूयं सव्वं मरणमा विण पत्थए ( दश. अ. ८ श्लो. २८ ) ७ चउब्वि आहारे, राई भोयरण व ज्जणा सन्निही संचओ चेव बज्जेयव्वो सुदुक्करो ( उत्त. अ. १६ श्लो. ३०) उदउल्लं वोअ संसतं, पारणा निवडिओ मही, दिआताई विवज्जेज्जा, राओ तत्थ कह चरे (द. अ. ८) सति में साहुमाषारणा, तसा अदुव थावरा, दिआताई विवज्जेज्जा, रातत्थ कहं चरे । ४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा- ३ www.jainelibrary.org

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