Book Title: Tulsi Prajna 1975 07
Author(s): Mahavir Gelada
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 90
________________ है । इस प्रसंग में बौद्ध साहित्य में प्रचलित 'पंताणि' शब्द का 'एकान्त' अर्थ उपयुक्त नहीं लगता । उत्तराध्ययन १२ / ३३ के दूसरे चरण के अन्त में 'भूइपन्ना' शब्द आया है। भदन्तजी का मानना है कि यह पालिभाषा का 'भूरिप्रज्ञ' है, जिसका अर्थ है विपुलप्रज्ञ । यहां यह ध्यान देना है कि भूरिप्रज्ञ अर्थ की निष्पत्ति के लिए 'भूरिपन्ना' शब्द अपेक्षित है । वह किसी भी प्राचीन प्रति में उपलब्ध नहीं है । ऐसी स्थिति में इस शब्द को बदला नहीं जा सकता। एक बात अनन्त ज्ञानी भी है, जो कि विपुलप्रज्ञ काही वाचक है शब्द भेद मानने में कोई विप्रतिपत्ति नहीं होती । है कि 'भूइपन्ना' का एक अर्थ । अतः अर्थसाम्य होने पर भी उत्तराध्ययन १४ / ३१ के चौथे चरण का अंतिम शब्द है— पहाणमग्गं ।' इसका अर्थ है -- मोक्ष मार्ग । मोक्ष मार्ग को हम तात्पर्यार्थ में - समस्त दुःखों के क्षय का मार्ग भी कह सकते हैं । अतः यहां इसका अर्थ प्रधान मार्ग (मोक्ष मार्ग) करना अयथार्थ नहीं है । आवश्यक सूत्र में निर्ग्रन्थ प्रवचन के विशेषरण के रूप में 'सव्वदुक्खपहीणमगं' शब्द आता है। इसका अर्थ है कि निर्ग्रन्थ प्रवचन समस्त दुःखों के क्षय का मार्ग है। तात्पर्यार्थ में 'पहीरणमग्गं' और 'पहाणमग्ग' में कोई अन्तर नहीं है । उत्तराध्ययन ५ / ४ में 'कामगिद्धे जहा बाले, भिसं कुराई कुब्वई' यह पाठ है । यहां 'बाल' शब्द का अर्थ 'अज्ञानी मनुष्य' है । जिस हिन्दी संस्करण में इसका अर्थ 'अज्ञानी आत्मा' किया है, वहां भी आत्मा का अर्थ मनुष्य ही अभिप्रेत होना चाहिए । इसी प्रकार ५ / १६ में 'बाले संतस्सई भया' का हमने अर्थ 'अज्ञानी मनुष्य परलोक के भय से संत्रस्त्र होता है, किया है । भदन्तजी ने पृ० ६ पर उत्तराध्ययन की निम्नोक्त गाथा प्रस्तुत की है— बहुं खु मुरिगणो भद्द, अणगारस्स भिक्खुणो । सव्वओ विप्पुमुक्कस्स, एगन्तमरणुपस्सओ ॥ ( ९ / १६) हमने इसका अर्थ यह किया है सब बन्धनों से मुक्त, 'मैं अकेला हूं मेरा कोई नहीं - इस प्रकार एकत्वदर्शी, गृहत्यागी एवं तपस्वी भिक्षु को विपुल सुख होता है । इस गाथा में भदन्तजी को 'सव्वओ विप्यमुक्कस्स ' एगंतमरणुवस्सओ' आदि शब्दों से एकान्तवाद की झलक मिलती है । इसीलिए उन्होंने यह व्यंग लिखा है'अनेकान्त में यह एकान्त कैसा ?" यहां भदन्तजी को समझने में भूल हुई है । जैन परम्परा में भावनाओं का बहुत महत्व है । मुख्य रूप में वे बारह हैं - अनित्य भावना, अशरण भावना, संसार भावना, एकत्व भावना आदि आदि । उपर्युक्त श्लोक में एकत्व भावना का निरूपण है । एकत्व भावनानुगत साधक सोचता है— मैं अकेला हूं, मेरा कोई नहीं है - 'एकोऽह, न तुलसी प्रज्ञा - ३ ८४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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