Book Title: Tulsi Prajna 1975 07
Author(s): Mahavir Gelada
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 99
________________ ६. शिक्षण प्रशिक्षण ( निदेशक : श्री जबरमल जी भण्डारी व सह-निदेशक : श्री सम्पतमल जी जैन ) ____ इस विभाग द्वारा पारमार्थिक शिक्षण संस्था की बहिनों के विशेष प्रशिक्षण के लिये गत अप्रैल मास तक ६००) २० प्रतिमाह के हिसाब से दिये गये हैं। हाल ही में जयपुर में शिक्षा सम्बन्धी विद्वानों की एक गोष्ठी का आयोजन आचार्यप्रवर के सान्निध्य में किया गया । मुनिश्री नथमल जी व मुनिश्री महेन्द्रकुमार जी आदि कई संतों के मार्गदर्शन में कई दिनों तक विचार विमर्श चलता रहा। अब जैन विश्व भारती का स्वयं का अपना नया पाठ्यक्रम प्रस्तुत किया गया है । ७. शोध विभाग ( निदेशक : डा. महावीरराज जी गेलड़ा) गत वर्ष दिल्ली में आचार्य प्रवर के सान्निध्य में एक अखिल भारतीय जैन दर्शन परिषद का सम्मेलन डा० महावीरराज जी गेलड़ा के निदेशन में सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ, जिसका उद्घाटन भारत सरकार के तत्कालीन संचार मंत्री डा. शंकरदयाल जी शर्मा ने किया। इस सम्मेलन में देश के प्रायः सभी प्रांतों से जैन दर्शन के विद्वानों ने भाग लिया। जर्मनी से अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त जैन दर्शन विद्वान श्री एल० एल्सडोर्फ भी इसमें भाग लेने भारत आये जिन्हें जन विश्व भारती की तरफ से 'विद्या मनीषी' की उपाधि से विभूषित किया गया। __ जैनोलोजिकल रिसर्च सोसायटी के साथ मिलकर सन् १९७४ में २५ मई से ८ जून तक दिल्ली विश्वविद्यालय में समर स्कूल फार जैनोलोजिकल रिसर्च का आयोजन किया गया। इसमें संस्था ने ४०००)०० ( चार हजार रुपयों ) का अनुदान दिया। ___ इस विभाग के अन्तर्गत डा. गेलड़ा जी के सम्पादन में एक त्रैमासिक पत्रिका का प्रकाशन-कार्य बड़ी कुशलता से चल रहा है। पहले अनुसंधान पत्रिका के नाम से प्रकाशन होता था पर अब सरकार द्वारा 'तुलसी प्रज्ञा' के नाम से स्वीकृति मिलने पर इसका प्रथम व द्वितीय अंक प्रकाशित हो चुके हैं। 'अनुसंधान पत्रिका' के प्रकाशन पर ५३६३)८२ रु० खर्च हुये थे। इस वर्ष 'तुलसी प्रज्ञा' के प्रकाशन पर १५६२)७४ रु० खर्च हो चुके हैं। कुछ खर्चों की विगत निदेशक महोदय से अभी मिलनी शेष है। ८. वित्त विभाग समिति १. श्री खेमचन्दजी सेठिया २. श्री राजमलजी जीरावला ३. श्री जाउमलजी घोड़ावत ४. श्री मोतीलाल जी नाहटा व ५. श्री मोहनलालजी संचेती (निदेशक) वित्त विभाग का कार्य है-जैन विश्व भारती की समस्त स्वीकृत प्रवृत्तियों के लिये आवश्यक धन जुटाना। मुझे यह कहते हुये खुशी होती है कि धन के अभाव तुलसी प्रज्ञा-३ ६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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