Book Title: Tulsi Prajna 1975 07
Author(s): Mahavir Gelada
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 91
________________ मे कश्चित् । अत: यहां एकान्तवाद या अनेकान्तवाद की चर्चा ही नहीं है। भदन्तजी एक बात और कहते हैं कि (जनों में) पृथ्वी आदि को सजीव मानने की रूढ़ी पड़ गई है । ''पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि छहों पदार्थों को सजीव मानना उत्तरकालीन आरोपित मत भी हो सकता है । वे लिखते हैं--- 'उत्तराध्ययन सूत्र का कहना है कि पृथ्वी इसी अर्थ में सजीव है, क्योंकि पृथ्वी में सूक्ष्म जीव रहते हैं, जल भी इसी अर्थ में सजीव है, क्योंकि उसमें जीव रहते हैं, अग्नि भी इसी अर्थ में सजीव है, क्योंकि लकड़ी-उपलों आदि में जीव रहते हैं और वायु भी इसी अर्थ में सजीव है, क्योंकि वायु में भी जीव रहते हैं।' पता नहीं भदन्तजी ने इसे उत्तराध्ययन का मत कैसे कहा । जैन दर्शन की यह मान्यता है कि विश्व में मूल दो तत्त्व हैं-जीव और अजीव । जीव के दो प्रकार हैं-बस और स्थावर । स्थावर के पांच प्रकार हैं-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति । 'इनमें जीव रहते हैं'-~यह एक बात है और 'ये जीव हैं' यह एक बात है। जैन दर्शन की यह मान्यता है कि पृथ्वी आदि स्वयं जीवों के पिण्ड हैं। इनके आश्रित रहने वाले जीव स्थावर नहीं वस होते हैं। अत: इन्हें सजीव मानने में यह तथ्य नहीं है कि इनमें जीव रहते हैं, किन्तु यह तथ्य है कि ये स्वयं जीव हैं। इनमें आधार ---आधेय सम्बन्ध नहीं है। भदन्त जी ने 'आहारोवहि सेज्जाए' ( उत्त० २४।११ ) में 'ओवहि' शब्द की कल्पना कर उसका अर्थ औषधि करने का सुझाव दिया है। यहां मूल शब्द 'ओवहि' नहीं है 'उवहि' है, जिसका अर्थ उपधि होता है, औषधि नहीं। 'आहारोवहि' शब्द आगमों में अनेक स्थलों पर प्रयुक्त होता है। इसमें दो शब्द हैं-आहार+ उवहि । आहार का अर्थ है-भोजन-पान और उपधि का अर्थ है-मुनि चर्या में उपयोगी उपकरण। भदन्त जी ने यह लिखा है कि जैन मुनि के लिए चिकित्सामात्र का निषेध है और इस मत की पुष्टि के लिए उत्तराध्ययन सूत्र २।३३ की गाथा उद्धृत की है - 'तेच्छिं नाभिनंदेज्जा, संचिक्खत्तगवेसए । एवं खु तस्स सामण्णं, जं न कुज्जा न कारवे ।। इसका अर्थ है-आत्म-गवेषक मुनि चिकित्सा का अनुमोदन न करे । रोग हो जाने पर समाधिपूर्वक रहे। उसका श्रामण्य यही है कि वह रोग उत्पन्न होने पर भी चिकित्सा न करे, न कराए। ___यह विधान समस्त साधुओं के लिए नहीं है। जैन आगमों में साधकों की अनेक श्रेणियां प्रतिपादित हैं। उनके उत्सर्ग अपवाद वाले अनेक विधि-विधान मिले-जुले रूप में मिलते हैं। अत: सब विधानों को एक ही श्रेणी के साधकों पर लागू नहीं किया जा सकता । तुलसी प्रज्ञा-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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