Book Title: Tulsi Prajna 1975 07
Author(s): Mahavir Gelada
Publisher: Jain Vishva Bharati
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उस समय भगवान् के शिष्य अहिंसक पक्ष का सन्देश जनता तक पहुंचा रहे थे। हरिकेश मुनि ने यज्ञवाट में कहा- 'ब्राह्मणो ! आपका यज्ञ श्रेष्ठ यज्ञ नहीं है।
'मुने ! आपने यह कैसे कहा कि हमारा यज्ञ श्रेष्ठ नहीं है ?' 'जिसमें हिंसा होती है, वह श्रेष्ठ यज्ञ नहीं होता।' 'श्रेष्ठ यज्ञ कैसे हो सकता है, आप बतलाएं हम जानना चाहते हैं।'
'जिसमें इन्द्रिय और मन का संयम, अहिंसा का आवरण और देह का विसर्जन होता है, वह श्रेष्ठ यज्ञ है।'
'क्या आप भी यज्ञ करते हैं ?' 'प्रतिदिन करता हूं।'
मुनि की बात सुन रुद्रदेव विस्मय में पड़ गया। उसे इसकी कल्पना नहीं थी। उसने आश्चर्य के साथ पूछा - 'मुने ! तुम्हारी ज्योति कौन सी है ? ज्योति-स्थान कौन-सा है ? घी डालने की करछियां कौन-सी हैं ? अग्नि को जलाने के कंडे कौन-से हैं ? ईंधन और शांति-पाठ कौन-से हैं ? और किस होम से तुम ज्योति को हुत करते हो?'
इसके उत्तर में मुनि हरिकेश ने अहिंसक यज्ञ की व्याख्या की। वह व्याख्या महावीर से उन्हें प्राप्त थी।
श्रमण संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाली दो प्रमुख परम्पराएं जैन और बौद्ध --में अभेद अधिक, भेद कम हो तो इसमें आश्चर्य ही क्या है। दोनों का उत्पत्ति क्षेत्र और कर्मक्षेत्र एक रहा है। दोनों का उद्गम अहिंसा और करुणा को प्रतिष्ठापित करने के लिए हुआ है। दोनों की निष्पत्ति समता में हुई है। अत: दोनों एक दूसरे की परक हैं।
भदन्तजी बौद्ध-जगत् के विश्रुत मनीषी हैं। उनके कुछ सुझाव अवश्य ही मननीय हैं। इस लघु निबन्ध में मैंने भदन्त जी द्वारा प्रस्तुत चिन्तन के विषय में कुछ तथ्य उपस्थित किये हैं।
सन्दर्भ १ तुलसी प्रज्ञा (अप्रेल-जून ७५), पृ० २ । २ मुनि नथमल, जैन-दर्शन : मनन और मीमांसा, पृ० २४४ । ३ दशवकालिक, हारिभद्रीया वृत्ति पत्र २६२ ।
तायोऽस्यास्तीति तायी,तायः-सुदृष्टभार्गोक्तिः सुपरिज्ञातदेशनया विनेयपालयितेत्यर्थः । ४ सूत्रकृतांग, वृत्ति पत्र ३६६ : मोक्ष प्रति गमनशील इत्यर्थः । ५ देखिये, दशवेआलियं (सानुवाद संस्करण) पृ० ४७,४८ । ६ देखिये, उत्तरज्झयणाणि (टिप्पण संस्करण ) पृ० ६६ । ७ देखिये, उत्तरज्झयणाणि (टिप्पण संस्करण ) पृ० ५३ । ८ श्रमण महावीर, पृ० १५६,१५७ ।
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तुलसी प्रज्ञा . ३
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