Book Title: Tulsi Prajna 1975 07
Author(s): Mahavir Gelada
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 86
________________ उत्तराध्ययन के संदर्भ में : भदन्तजी के चिन्तन की मीमांसा 0 मुनि दुलहराज मैंने अभी-अभी तुलसी प्रज्ञा ( त्रैमासिक पत्र ) का अप्रेल-जून का अंक देखा। उस में बौद्ध धर्म व दर्शन के मनीषी विद्वान् भदन्त आनन्द कौशल्यायन का लेख - "उत्तराध्ययन सूत्र-एक नयी दृष्टि" पढ़ा। लेखक ने उत्तराध्ययन सूत्र में व्यवहृत अनेक शब्दों की अर्थ-परम्परा की ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया है। यह उनके स्वतन्त्र चिन्तन-मनन का ही परिणाम है। उनकी अपनी एक पृष्ठभूमि है और वह है बौद्ध दर्शन की। उनका यह कथन बहुत ही यथार्थ है कि श्रमण परम्परा की दो समसामयिक धर्म परम्पराएं-जैन और बौद्ध -एक दूसरे से इतनी अनुस्यूत हैं कि उनमें अनेक स्थलों पर अभेद है। भेद भी अवश्य है पर वह कालावधि में वृद्धिगत होता हुआ प्रतीत होता है। उद्गम में दोनों में बहुत बड़ा भेद नहीं था। अत: जैन आगमों में व्यवहृत अनेक शब्दों की अर्थ-परम्परा जैन साहित्य में सुरक्षित नहीं है, बौद्ध साहित्य में सुरक्षित है। इसी प्रकार बौद्ध त्रिपटकों के अनेक शब्दों की अर्थ परम्परा जैन साहित्य में सुरक्षित है। अत: एक दूसरे का तुलनात्मक अध्ययन दोनों दर्शनों के विद्वानों के लिए अनिवार्य हो जाता है। - आज जैन और बौद्ध परम्परा में इतना भेद आ चुका है कि प्रथम दर्शन में ऐसा लगता ही नहीं कि वे एक ही श्रमण परम्परा की दो शाखाएं हैं। इस भेद का कारण है बौद्ध दर्शन का भिन्न-भिन्न देशों में परिव्रजन । विद्वान् लेखक ने अपने प्रस्तुत लेख में अन्यान्य बातों के साथ इस बात को सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि उत्तराध्ययन सूत्र में जो 'आत्मवाद' की बात कही जाती है, वह स्वतः प्राप्त नहीं है, आरोपित है। वे लिखते हैं - "जिस प्रकार बौद्ध-संस्कृति में किसी ईश्वर-आत्मा तथा परमात्मा के लिए कोई स्थान नहीं, उसी प्रकार उत्तराध्ययन अनुमोदित श्रमण संस्कृति में किसी भी ईश्वर, आत्मा तथा परमात्मा के लिए कोई स्थान नहीं। सारे उत्तराध्ययन सूत्र में कोई एक भी गाथा नहीं, किसी एक भी गाथा को कोई एक भी पंक्ति ऐसी नहीं और किसी एक भी पंक्ति का एक भी शब्द ऐसा नहीं, जिसका अर्थ ईश्वर -- आत्मा तथा परमात्मापक लगाया जा सके। कोई भ्रम न रहे इसलिये हम यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि ईश्वर से हमारा अभिप्राय उस काल्पनिक अस्तित्व से है, जिसके बारे में प्रतिपादित किया . . तुलसी प्रज्ञा-3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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