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रहते जीर्ण हो जाय ।
निशीथ सूत्र में रात को भोजन करने वाले मुनि के लिए जैसे चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान है वैसे खाए हुए आहार की उद्गार आ जाय और मुनि उसे निगल ले तो भी चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का प्रावधान है । सूर्यास्त पहले जीर्ण होने की बात और उद्गार के लिए प्रायश्चित्त का विधान इस बात को सूचित करता है कि रात्रि भोजन का वर्जन निश्चित ही भोजन अपरिपाक की दृष्टि से हुआ है जो कि साधना का सबसे बड़ा विघ्न बन सकता है और इससे साधु गृहस्थ वाली उलझन भी नहीं रहती क्योंकि बिना पचा आहार साधु और श्रावक सभी को रुग्ण बनाता है और साधना से स्खलित करता है । स्वास्थ्य ठीक रहने की स्थिति में ही साधना निर्विघ्न हो सकती है ।
हमारे प्राचीन ग्रन्थों में रात्रि भोजन के जो कुछ कारण बताए गए हैं जैसेसंग्रह दोष, हिंसा, जीवों के अवयव खाए जाने की संभावना, ये इतने सशक्त नहीं जितना सूर्यास्त के बाद खाना नहीं पचने वाला कारण पुष्ट है, क्योंकि रात्रि भोजन के साथ जो उद्गार की बात है वह उन व्यावहारिक कारणों से किंचित् भी सम्बन्धित नहीं है । उद्गार या तो अधिक खाने से आती है या खाना न पचने से आती है । इससे लगता है यहां नहीं पचने वाला कारण ही मुख्य है । निशीथ सूत्र में रात्रि उद्गार की भांति दिवस उद्गार का भी प्रायश्चित्त बताया गया है ।
इससे स्पष्ट है कि रात्रि भोजन, रात्रि उद्गार दिवस उद्गार आदि आहार अपरिपाक की दृष्टि से ही वर्जित हैं और
तुलसी प्रज्ञा-३
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यह रात्रि भोजन निषेध साधु, श्रावक, तीर्थंकर आदि सभी के लिए समान रूप से घटित होता है । प्रासंगिक रूप से हिंसा, संग्रह लोक व्यवहार भी इसके अन्तर्गत आ जाते हैं।
रात्रि भोजन निषेध की इस व्याख्या में अन्यान्य आपत्तियां भी निरस्त हो जाती हैं । साइबेरिया जैसे देशों में जहां छः महीने दिन, छः माह रात होती है, वहां रात्रिभोजन प्रत्याख्यान में कोई आपत्ति नहीं आती क्योंकि जब सूर्य विद्यमान रहता है तब रात्रि होती ही नहीं और सूर्य की किरणों के रहते नहीं पचने वाली बात भी नहीं है और छः महीने रात जहां रहती है वहां साधु का निवास तो मूलतः वर्जित है । गृहस्थ के लिए आपत्ति वाली बात नहीं है क्योंकि जहां छ: महीने रात रहती है वहां भोजन पचने वाले साधनों की खोज अवश्य की गई होगी। दूसरे में हर प्रत्याख्यान द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव सापेक्ष होता है ।
प्रश्न हो सकता है कि सूर्यास्त होते ही एक क्षरण क्या हो जाता है ? एक क्षण पहले खाया हुआ पच जाता है और एक क्षण पहले खाया गया नहीं पचता । इसका क्या अर्थ है ।
यद्यपि एक दो क्षण में कोई फर्क नहीं पड़ता फिर भी सीमा निर्धारण तो करना ही पड़ता है । सभी व्यक्ति समझदार, विवेकशील और स्वयं बुद्ध नहीं होते उनके लिए एक निश्चित सीमा बनानी पड़ती है । अधिकांश नियम व्यावहारिक सीमा निर्धारण के लिए किए जाते हैं क्योंकि नियम अधिकांश समूह के लिए बनते हैं। समूह चेतना कभी इतनी प्रबुद्ध नहीं होती अतः निश्चित रूप से कुछ सीमा
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