Book Title: Tulsi Prajna 1975 07
Author(s): Mahavir Gelada
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 18
________________ मेरी जन्मभूमि गंगाशहर में था। उन दिनों 'कालू यशो विलास' का रचनाक्रम बड़ी तीव्र गति से चल रहा था, लोगों की उत्कण्ठा को ध्यान में रखते हुए प्रातःकालीन प्रवचन में उसका वाचन प्रारम्भ हुआ। उसके सरस और सरीले पद्यों को जब आचार्यश्री अपने रसीले स्वरों से गाते तब ऐसा समां बंधता कि सहस्रों श्रोताओं को हृदयतंत्री झंकृतसी हो उठती थी। अब भी 'कंसूबे' गीत की धुन में गाये गये पद्यों की अव्यक्त ध्वनि मेरे कानों में गूज-सी रही है -- "निकट निकट बहू शहर सुरंगा, इकरंगा जिह देशी रे । बेलू-पर्वत पर्वत-सवया, प्रवया परिणत वेशी रे ।। रयणीये रेणु कणां शशि-किरणां, चलकै जाणक चांदी रे। मन हरणी धरणी यदि न हुवे, अति ___ आतप अरु आंधी रे ॥ सहज सरल श्रद्धालु हद हृदयालु जन जिहां वासी रे । बहु परिवार अपार धान्य-धन, मुनिसेवा अभिलाषी रे ॥ एहवी रचना जिहां कहो किम, तसु नाम मरुस्थल साधु रे । स्वर्ण स्थल भल भावे भाखत, नहीं कोई ___जात नो बाधु रे ॥२ प्रस्तुत पद्यों में प्रकृति-चित्रण के साथ-साथ मरुस्थल को स्वर्ण-स्थल के रूप में अंकित करने वाले सजीव प्रमाणों को पढ़कर कौनसा पाठक आश्चर्यान्वित नहीं होगा ? इस प्रकार मुझे प्रारम्भ से ही आचार्यश्री की रचनाओं को सुनने, पढ़ने और लिखने की अभिरुचि रही है, पर साहित्यिक दृष्टि से मैंने उन्हें तब पढ़ा जब श्री ब्रजनारायण पुरोहित पी-एच.डी उपाधि के लिए शोध-प्रबन्ध लिखते समय तेरापंथ के हिन्दी और राजस्थानी साहित्य का अनुशीलन कर रहे थे । उन्होंने आचार्यश्री के साहित्य का परिचय तथ मार्मिक स्थलों और पद्यों का संकलन मांगा था उसी सिलसिले में सैकड़ों पद्यो की सूची तैयार हो गई और वह अब भी मेरे पास सुरक्षित है। युग-प्रधान 'आचार्य श्री तुलसी" एक वृहद् धर्म संघ के संचालक हैं, उन्हे नेतृत्व के नाते संघीय बहुमुखी प्रवृत्तियों से अत्यधिक सम्बन्धित रहना पड़ता है, इसलिए व्यवस्थित रूप से अवकाश निक लने में कितनी दुविधा होती है इसे आपके सन्निकट रहने वाला ही जान सकता है। ___ साहित्य सृजन के लिए एकान्त और नीरव वातावरण की अपेक्षा रहती है किन्तु आपकी यह विरल विशेषता है कि जन-संकुल स्थानों में भी एकाग्र होकर लिख सकते हैं, अन्यथा साहित्य जगत को इतनी रचनाएं शायद नहीं मिल पातीं । आचार्य श्री की कृतियां मुख्यतः तीन भाषाओं-संस्कृत, हिन्दी और राजस्थानी-में हैं। कई कृतियों का ते विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है । प्रस्तुत निबन्ध में - राजस्थानी भाषा से सम्बन्धित साहित्य पर ही विशेष प्रकाश डाला जायेगा। राजस्थानी आचार्य श्री की मातृ भाषा है । मातृभाषा के प्रति ममत्व या यों कहें कि तत्कालीन आसपास की परि. स्थितियां ही कुछ ऐसी थीं कि सर्व प्रथम १२ तुलसी प्रज्ञा-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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