Book Title: Tulsi Prajna 1975 07
Author(s): Mahavir Gelada
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 45
________________ नंजय और हनुमान की कथा बहुत पुरानी है । विमलसूरि ने पउमचरिय को नामावलीनिबद्ध और आचार्य परम्परागत कहा है और इसका मूलस्रोत केवलज्ञानी जिनेश्वर और गणधरों को बतलाया है ।१० रविषेण ने अपने पद्मचरित ( जिसमें अजना पवनंजय की कथा आती है ) में भी अपने पूर्वाचार्यों की सूची दी है और कथा को सर्वप्रथम भगवान महावीर द्वारा कहा हुआ बतलाया है। इस प्रकार इस कथा की प्राचीनता स्वतः सिद्ध ។ ។ संदर्भ १ भोलाशंकर व्यास : संस्कृत कवि दर्शन पृ. ७६-८० २ पंचैव वासया दुसमाए तीसवरस संजुत्ता । वीरे सिद्धिमुवगए तओ निबद्ध इमं चरियं ॥ पउमचरिय ( जैन साहित्य और इतिहास पृ. ८७ ) ३ एनसाइक्लोपीडिया आफ रिलिजन एण्ड ईथिक्स भाग ७ पृ. ४३७ और माडर्न रिव्यू दिस. सन् १९१४ ४ कीथ : संस्कृत साहित्य का इतिहास होती है । इसी प्रचलित अंजना पवनंजय की कथा से उपादान ग्रहण कर कालिदास ने महाभारत में प्रचलित शकुन्तला दुष्यन्त की कथा को परिमार्जित कर नाटकीयता के योग्य तत्त्वों को भरा हो तो कोई आश्चर्य नहीं । इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि अभिज्ञान शाकुन्तल की कथा में मूलकथा की अपेक्षा जो परिवर्तन किए गए हैं उन सभी परिवर्तनों के तत्त्व अंजना पवनंजय की कथा में किसी रूप में अधिकांशतया आते हैं । ५ इण्ट्रोडक्शन टू प्राकृत ६ जैन साहित्य और इतिहास पृ. ९१ ७ वही पृ. ६१ ८ जारयिं विमलको विमलको तारिस लहद् अत्थं । अमय भइयं च सरसं सरसं चि य पाइअं जस्स ।। ६ जेहिं कए रमणिज्जे वरंग परमाणचरिय वित्थारे । कहवा सलाह णिज्जे ते कइणो जडिय रविसेणो ॥ १० नामावलियनिबद्ध आर्यारयपरम्परागयं सव्वं । वोच्छामि पउमचरियं अहारणुपुत्विं समासेण ॥ को वण्णऊण तीरद् नीसेस पउमचरिय संबन्ध | मोत्तण केवलिजिगं तिकालनाणं हवइ जस्स ॥ जिवरम्हाओ अत्थो जो पुत्विं निग्गओ बहुविपथो । सो गरगहरे हिधरिउ संरवेवबिणो य उवई ट्ठो ॥ ११ पद्म. १/४१-४२ तुलसी प्रज्ञा- ३ Jain Education International पउमचरिय १ / ८.१० For Private & Personal Use Only ३६ www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116