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विद्वद्गोष्ठीक गप-शपक प्रसंग में हम कहैत छियन्ह जे 'तिथिनिर्णय, व्रतनिर्णय, दूनू पृथक्-पृथक् थोक । कार्तिक शुक्ल प्रतिपद् में गोपूजा आ' गो-क्रीड़ाक समय एक नहि थोक । “नागविद्धा न कर्तव्या षष्ठी चैव कदाचन ।" एहि स्कन्दपुराणक वचन के सर्वत्र नहिं जोड़, नहि त-स्कन्दषष्ठी, हलषष्ठी, प्रतिहारषष्ठी, वनषष्ठी-सर्वत्र अध्याप्ति.-अतिव्याप्ति दोष लागि जाएत । एक दिन हम स्वनामधन्य महामहोपाध्याय रजे मिश्रक तिथिनिर्णय में देखल-"व्रतनिर्णयः शुद्धिनिर्णयः तीर्थनिर्णयश्च यथावकाशं प्रकाशमेष्यन्ति" (पृ० ३५ में ) ई देखि हम आश्वस्त भेलहुँ आ' प्रस्तुत पुस्तक के सुसंस्कृत रूप में संपादन कय प्रकाशित कराओल अछि। विद्वान एहिसं विशेष उपकृत होएताह । इति शम् ।
सर्वे च सुखिनः सन्तु सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग भवेत् ।।
तरौनी, सुदामा-कुटी । वि० सं० २०२८ ।
निवेदकः
-रामचन्द्र झा (सम्पादक: मिथिला ग्रन्थमाला, काशी)
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