Book Title: Tirthankar 1977 11 12
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 44
________________ सत्यान्वेषी सन्त : मुनि श्रीचौथमलजी - दुर्गाशंकर त्रिवेदी उनका जीवन सामाजिक एकता, मंत्री, शान्तिपूण सहअस्तित्व, अहिंसात्मक आचरण और सहज वात्सल्य की विजय का अपूर्व शंखनाद था। वे वाग्मिता, यानी सहज वक्तृत्व कला के अद्भुत धनी थे, उनकी गुरु-गम्भीर वाणी में एक विरल क़िस्म की अपरिमित चुम्बकीय ऊर्जा व्याप्त थी, जो चित्त को सहज ही बींध लेती थी। वे हिंसा, अशान्ति, बैर और अविश्वास की दुर्दम शक्तियों को पराजित करके 'एकला चलो रे' के मार्ग-दीप को संदीप्त कर चलने वाले युग-पुरुष थे। . पतितों, शोषितों, दीन-दुःखियों, पीड़ितों और तरह-तरह के कष्टों से संत्रस्त जन-सामान्य की पीड़ा-पूरित अश्रु-विगलित आँखों के आँसू पौंछने को सन्नद्ध अहर्निश सेवारत सन्त थे। ये तथा एसे कितने ही प्रशस्ति-परक वाक्यों की पंक्तियों के समूह जिस किसी आदर्श जैन सन्त के लिए लिखे जा सकते हैं: उनमें जैन दिवाकर सन्त श्रीचौथमल जी महाराज का महत्त्वपूर्ण स्थान है। समाज सेवा को समर्पित ऐसा सत्यान्वेषी सन्त इस युग में दुर्लभ ही है। उन्होंने अपने अप्रतिम व्यक्तित्व के माध्यम से अज्ञानियों, अशिक्षितों, भले-भटके संशय ग्रस्त मनुष्यों के मन-मन्दिर में साधना और सच्चरित्रता का अखण्ड दीपक प्रज्वलित किया। विश्व-मंगल के लिए तिल-तिल समर्पित इस महामानव का व्यापक प्रभाव आज भी उसी तरह से कायम है। श्रद्धा का सैलाब जनजीवन में उसी तरह उफनता नजर आता है उनके नाम पर! . • कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी, रविवार संवत् १९३४ को मध्यप्रदेश के नीमच नगर में जन्म लेकर श्री चौथमलजी महाराज ने १८ वर्ष की वय में ही बोलिया (मंदसौर, म.प्र.) में श्री हीरालालजी महाराज से दीक्षा लेकर 'वसुधा; मेरा कुटुम्ब' की घोषणा की थी। जिसे आजीवन निभाकर आपने मानवोद्धार का मार्ग जन-जीवन में प्रशस्त किया। अपने जीवन के ५५ चातुर्मासों में आपने अपनी सहज बोधगम्य धाराप्रवाही अन्दर तक छू कर उद्वेलित करने वाली गुरु-गम्भीर वाणी द्वारा छोटे-बड़े, राव-रंक सबको अभिषिक्त किया। विभिन्न धर्मावलम्बियों के प्रति आपका सहज स्नेह इसी भावना का पोषक रहा है। ___ श्री रमेश मुनि ने उनकी मानव-एकता की भावना से प्रभावित होकर उनका समीचीन मूल्यांकन करते हुए ठीक ही कहा है-'उस महान् मनस्वी का व्यक्तित्व शुक्ल पक्ष के सुधाकर की तरह उत्तरोत्तर विकसित हुआ है। जंगल से उद्यानों तक, ४० तीर्थकर : नव. दिस. १९७७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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