Book Title: Tirthankar 1977 11 12
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 199
________________ ( संपादकीय : पृष्ठ ८ का शेष ) कोई कुछ देने आया तो उससे दुर्गुण माँगे, धन-वैभव नहीं मांगा, व्यसन माँगे, असन या सिंहासन नहीं माँगा, विपदा मांगी, संपदा नहीं माँगी; उन्हें ऐसे लोग अपना सर्वस्व अर्पित करने आये जिनके पास शाम का खाना तक नहीं था, और ऐसे लोग भी सब कुछ सौंपने आये जिनके पास आनेवाली अपनी कई पीढ़ियों के लिए भरण-पोषण था, किन्तु उन्होंने दोनों से अहिंसा माँगी, जीव दया-व्रत माँगा, सदाचरण का संकल्प माँगा, बहुमूल्य वस्त्र लौटा दिये, धन लौटा दिया; इसीलिए हम संतत्व की इस परिभाषा को भी सजीव देख सके कि संत को कुछ नहीं चाहिये, उसका पेट ही कितना होता है? और फिर वह भूखा रह सकता है, प्यासा रह सकता है, ठंड सह सकता है, लू झेल सकता है, मूसलाधार वृष्टि उसे सह्य है, किन्तु यह सह्य नहीं है कि आदमी आदमी का शोषण करे, आदमी आदमी का गला काटे, आदमी आदमी को धोखा दे, आदमी आदमी न रहे। उसका सारा जीवन आदमी को ऊपर और ऊपर, और ऊपर, उठाने में प्रतिपल लगा रहता है। संतों का सबमें बड़ा लक्षण है उनका मानवीय होना, करुणामय होना, लोगों की उस जुबान को समझना जिसे हम दरद कहते हैं, व्यथा की भाषा कहते हैं। मुनिश्री चौथमलजी की विशेषता थी कि वे आदमी के ही नहीं प्राणिमात्र के व्यथा-क्षणों को समझते थे, उनका आदर करते थे, और उसे दूर करने का प्राणपण से प्रयास करते थे। आयें, व्यक्ति-क्रान्ति के अनस्त सूरज को प्रणाम करें, ताकि हमारे मन का, तन का और धन का आँगन किसी सांस्कृतिक धूप की गरमाहट महसूस कर सके, और रोशनी ऐसी हमें मिल सके जो अबुझ है, वस्तुतः मुनिश्री चौथमल एक ऐसे सूर्योदय हैं, जो रोज-ब-रोज केवल पूरब से नहीं सभी दिशाओं से ऊग सकते हैं, क्या हम सूर्यवंशी होना पसंद करेंगे? 00 चौ. ज. श. अंक १९५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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