Book Title: Tirthankar 1977 11 12
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 128
________________ जाती है परिस्थिति पर, परिणाम पर । हम सोचने लग जाते हैं -- उसने मेरी शिकायत कर दी, उसने मेरे साथ ऐसा व्यवहार किया; उसने मेरा अपमान कर डाला । हमारा सारा चिन्तन बाह्य जगत् पर चला जाता है। यह नहीं सोचा जाता कि राग का क्षण हमने कैसे जिया था ? द्वेष का क्षण हमने कैसे जिया था ? अर्थात् हम अध्यात्म से हटकर बाहर के निर्णय पर चले जाते हैं । भगवान् महावीर ने एक महत्त्वपूर्ण सूत्र दिया कि समूची जिम्मेवारी, समूचा दायित्व आत्मा पर है । उन्होंने कभी नहीं कहा कि आत्मा के अतिरिक्त दूसरा कोई शत्रु है या मित्र है । उनका सूत्र यही रहा कि आत्मा ही मित्र है । बाहर मित्र की क्या खोज कर रहे हो । उन्होंने कभी नहीं कहा कि दूसरा कोई तुम्हें बन्धन में डालता है, बन्धन में फंगाता है । यह बंध और मोक्ष का दायित्व, यह पुण्य और पाप का दायित्व, यह मुख और दुःख का दायित्व -- सारा दायित्व आत्मा का है । आत्मा ही सब कुछ करने वाला है । क्या हम अध्यात्म के इस रहस्य की गहराई तक पहुँचने का प्रयत्न करते हैं कि यह सारा दायित्व हम पर है ? हमेशा हम प्रत्येक बात का दायित्व दूसरों पर डाल देते हैं और हम जब तक दूसरे पर दायित्व नहीं डाल देते तब तक मन बेचैन रहता है। हम बहाना ढूंढ लेते हैं कि अमुक ने ऐसे किया, अमुक ने वैसे किया । ऐसा कर हम अपने-आपको हल्का अनुभव करते हैं । और सोचते हैं कि चलो, अपना काम हो गया, किन्तु अध्यात्म का रहस्य इससे भिन्न है । अध्यात्म का महत्त्वपूर्ण रहस्य यह है कि किसी के लिए कोई जिम्मेवार नहीं । सारी घटनाओं के लिए जो अन्तिम जिम्मेवार है, वह अपनी आत्मा है, अपना अध्यवसाय है ।' ___मैंने अध्यात्म के दो-तीन रहस्यों की चर्चा की है। यह चर्चा बहुत विस्तार मांगती है, पर मैंने संक्षेप में उसको प्रस्तुत किया है । यदि ये दो-तीन रहस्य, जिनका उद्घाटन हमारे मन में हो सके, हमारे जीवन में हो सके तो और रहस्य खोजने की ज़रूरत नहीं है । मैंने ऊपर जिन रहस्यों की चर्चा की है, वे सब खोजे गये रहस्य हैं । हमारे तीर्थंकरों ने, हमारे आचार्यों ने इनकी खोज की थी । जो खोजे गये रहस्य हैं, उनकी मात्र स्मृति मैंने प्रस्तुत की है। आपको थोड़ी-सी याद दिलानी है। इन रहस्यों के प्रति हमारा ध्यान केन्द्रित हो और नये रहस्यों को खोजने की एक तड़प, एक भावना, सघन श्रद्धा मन में जागृत हो, पुरुषार्थ उस दिशा में आगे बढ़े तो मुझे लगता है कि इस संसार में भोगी जाने वाली बहुत सारी व्याधियों और मानसिक संकट से हम बच सकते हैं और कछुए की भाँति अपने लिए ऐसी ढाल बना सकते हैं जिसमें जाकर सारे आक्रमणों, अतिक्रमणों से बचकर अपने-आपको सुरक्षित अनुभव कर सकते हैं । 'आत्मा में प्रकाश है तो भौतिक प्रकाश भी हमारे काम आ जाता है। आत्मा का प्रकाश न हो तो बाहर का कोई भी प्रकाश काम नहीं आ सकता। १२४ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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