Book Title: Tirthankar 1977 11 12
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 141
________________ इसमें जो जितना अधिक त्याग करता है, उसका उतना ही ऊँचा स्थान माना जाता है। बड़े-बड़े सम्राटों को त्यागियों के समक्ष झुकते और गुणगान करके अपने को कृतकृत्य समझते हुए बताया गया है, न कि किसी योगी, त्यागी को भोगी की प्रशंसा करते हुए। यह कहना तो सत्य है कि जैन संस्कृति में निवृत्ति पर सबसे अधिक बल दिया गया है, लेकिन इसके अनेकान्त दर्शन की अनुयायी होने के कारण प्रवृत्ति को भी उचित स्थान प्राप्त है। प्रवृत्ति एवं निवृत्ति दोनों ही जीवन की दो विधाएँ हैं; जिनका उद्देश्य जीवन को पावन बनाना है। दोनों एक-दूसरे पर आश्रित हैं। प्रवृत्ति में भी निवृत्ति के तत्त्व निहित हैं और निवृत्ति में प्रवृत्ति के। ___कोई भी समाज या व्यक्ति एकमात्र प्रवृत्ति की भूल-भुलैयों में जीवित रह कर वास्तविक निवृत्ति नहीं साध सकता। यदि वह किसी तरह की निवृत्ति को न माने और प्रवृत्ति-चक्र का ही महत्त्व समझे तो यह निश्चित है कि वह संस्कृति के सामान्य धरातल का भी स्पर्श नहीं कर पायेगा। यही स्थिति प्रवृत्ति का आश्रय लिये बिना निवृत्ति के निराधार आकाश में रहनेवालों की होगी। दोष, बुराई, ग़लती से तब तक कोई नहीं बच सकता, जब तक वह दोष-निवृत्ति के साथ-साथ सद्गुणों और कल्याणमय प्रवृत्ति की ओर अग्रसर न हो। रोगी को स्वस्थ होने के लिए कुपथ्यत्याग के साथ पथ्य-सेवन करना भी आवश्यक है। दूसरी संस्कृतियों की तरह जैन संस्कृति के दो रूप हैं--एक बाह्य और दूसरा आन्तर। बाह्य रूप वह है, जिसको उस संस्कृति के अनुयायियों के अतिरिक्त दूसरे लोग भी आँख, कान आदि बाह्य इन्द्रियों से जान सकें; लेकिन संस्कृति का आन्तर रूप ऐसा नहीं है। आन्तर रूप अनुभूतिगम्य है। उसका साक्षात् दर्शन, आकलन तो वह कर सकता है जो उसे जीवन में तन्मय कर ले, आत्मसात् कर ले। जैन संस्कृति के बाह्य रूप में उन अनेक वस्तुओं का समावेश होता है, जो प्रकट हैं और जिनके लिए व्यक्ति की कायिक और वाचनिक प्रवृत्ति होती है। जैसे खान-पान , उत्सवत्यौहार, भाषा-प्रयोग, दैनिक जीवन में काम आने वाले उपकरण, उपासना-विधि आदि । इनका आन्तर रूप के साथ संबन्ध होता है और अनुयायि-वर्ग उस प्रवृत्ति को करके अपनी निष्ठा भी व्यक्त करता है, लेकिन यह कोई एकान्तिक नियम नहीं है कि जहाँ और जब बाह्य अंग हो वहाँ और तब आन्तर रूप होना ही चाहिये, क्योंकि आन्तर रूप इतना व्यापक है कि किसी एक दो बाह्य अंगों से उसकी यथार्थता का अनुमान नहीं लगाया जा सकता । इस स्थिति में प्रश्न यह है कि जैन संस्कृति का आन्तर रूप क्या है ? इसका उत्तर ऊपर दिया जा चुका है कि निवृत्ति निवर्तक धर्म जैन संस्कृति की आत्मा है । निवृत्ति के सामान्य अर्थ का भी संकेत किया गया है-'त्याग', लेकिन 'त्याग' शब्द में भी एक चौ. ज. श. अंक १३७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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