Book Title: Tirthankar 1977 11 12
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 170
________________ और उनकी सादगी जनता-जनार्दन को प्रत्यक्ष देखने को मिली है, तथा साधुओं को अपने देश का व्यापक स्वाध्याय करने का मौका सुलभ हुआ है। साधु-जिसे ज्ञान की आँख कहा गया है - जब देश में अपने विशिष्ट साधु-परिकर के साथ घूमता है तब लगता है कोई अपलक कैमरा घूम रहा है जो सत्य को बिना किसी रंगत या लाग-लपेट के कह सकेगा ; इसीलिए समीक्ष्य ग्रन्थ में भाषा-नीति जैसे पेचीदे सवाल पर भी सहज विचार हुआ है, और सारे देश की एक बेलौस झाँकी-झलक मिली है । ग्रन्थ रोचक है, ज्ञानवर्द्धक है । हमारे विनम्र विचार में यदि यह ग्रन्थ जैन श्रमणों के लिए प्रेरक सिद्ध हो सके और वे भी अपने यात्राविवरणों को इस तरह उपलब्ध करा सकें तो भारतीय साहित्य में यह उनका एक विशिष्ट और बहुमूल्य अवदान होगा और इससे सदाचार की शक्तियाँ एकत्रित होकर अभिनव बल प्राप्त कर सकेंगी । वस्तुतः इस बहुमूल्य उपलब्धि के लिए हमें आचार्यश्री तुलसी तथा उनकी विदुषी साध्वी-प्रमखा कनकप्रभाजी का कृतज्ञ होना चाहिये कि जिन्होंने इस क्षेत्र में इतना प्रशस्त नेतृत्व किया है । कुल में, ग्रन्थ पठनीव, संकलनीय और अनुसरणीय है । जहाँ तक मुद्रण और सज्जा का प्रश्न है आदर्श साहित्य संघ के व्यवस्थापक श्री कमलेश चतुर्वेदी इसके विशेषज्ञ हैं, और उक्त कृति इसका एक उत्कृष्ट प्रमाण है । जैन न्याय का विकास : मुनि नथमल, संपादक - मुनि दुलहराज : जैन विद्या अनुशीलन केन्द्र, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर : मूल्य – बीस रुपये : पृष्ठ - १७९ : रॉयल' - १९७७ । आलोच्य ग्रन्थ मुनिश्री नथमलजी के जैन विद्या अनुशीलन केन्द्र में प्रदत्त चार व्याख्यानों का एक संकलनीय संग्रह है, जो न्याय जैसे सूक्ष्म, गूढ-गहन, जटिल विषय को एक सहज परिवेश और भाषा-शैली में संपूर्ण प्रामाणिकता के साथ सफलतापूर्वक प्रस्तुत करता है। मुनि नथमलजी की एक विशिष्टता है कि वे जिस किसी विषय को प्रतिपादन के पटल पर न्योतते हैं, उसकी गहराइयों में यात्रा करते हैं और ऐसा करते हुए अपने पाठक या श्रोता को अपनी अंगुली नहीं छुड़ाने देते। वे सहज ही उसका विश्वास संपादित कर लेते हैं और बातचीत-जैसी शैली में प्रतिपाद्य विषय के सारे सूत्र-स्रोत उसके हवाले कर देते हैं। प्रस्तुत कृति इसकी एक. जीवन्त गवाही है। विद्वान् व्याख्यानकार का यह निष्कर्ष कि जैन परम्परा में तर्क का विकास वौद्धों के बाद हुआ - कई हस्ताक्षरों की जरूरत रखता है। यह महत्त्वपूर्ण है और इस पर पर्याप्त कार्य होना चाहिये। ग्रन्थ में जिन विषयों पर विचार हुआ है, वे हैं - आगम युग का जैन न्याय, दर्शन युग और जैन न्याय, अनेकान्त व्यवस्था के सूत्र, नयवाद, स्याद्वाद, सप्तभंगी न्याय, प्रमाण-व्यवस्था, अनुमान, अविनाभाव, भारतीय प्रमाणशास्त्र के विकास में जैन परम्परा का योगदान तथा परिशिष्ट । निःसंदेह, ग्रन्थ सर्वथा उपयोगी है - विद्वानों के लिए, सामान्य स्वाध्यायी के लिए, ग्रन्थालयों के लिए। मुद्रण निर्दोष है, सज्जा सादा और स्वाभाविक, तथा मूल्य उचित। CO तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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