Book Title: Tirthankar 1977 11 12
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 178
________________ दायित्व का बोध भी होगा । मुझे पूरा श्रेष्ठ प्रयास विश्वास है कि पाठक इस अंक को एक बार पढ कर पटक नहीं देंगे, सहेज कर रखग। है। जैन पत्र-पत्रिकाओं का इतिहास संक हिन्दी पत्रकारिता में आपका प्रयास श्रेष्ठ मेरी हार्दिक बधाई, अभिनन्दन ! लन कर उनकी प्रगति हेतु दिये गये सुझाव -यशपाल जैन, नई दिल्ली शायद आज का नेतृत्व न माने पर यह संग्रहणीय निश्चित है कि भविष्य समन्वय का है । विशेषांक संग्रहणीय बन गया है। वस्तु को यथोचित स्थान पर रखने की तथा कई महत्त्व की गलतियाँ भी रह गयी हैं। उसे संजोने की जो कला आप में है, वह कुछ नयी जानकारी भी फिर कभी दंगा। आपको चूमने लायक है। ... मेरी राय में रमा जैन संबन्धी सामग्री -बाबूलाल पाटोदी, इन्दौर अलग अंक में देनी चाहिये थी। वह अंक बड़ी प्रसन्नता महत्त्व का बन जाता । असंगति नहीं लगती। विशेषांक के दर्शन कर बड़ी प्रसन्नता -अगरचन्द नाहटा, बीकानेर हुई । · ·आपने इस अंक में प्रेमीजी को उभारने का प्रयास तो किया है, जो सराहप्रत्याशा से कई गुना अधिक समृद्ध नीय है; पर पं. जगलकिशोरजी मुख्तार जैन पत्रकारत्व विशेषांक मेरी प्रत्याशा को कैसे भूल गए? उनका स्वरूप प्रेमीजी से से कई गुना अधिक समृद्ध निकला है ।। " कुछ कम नहीं रहा है । वे कलम के धनी रहे प्रत्येक लेख पढ़ जाने का लोभ होता है, पर हैं और उनकी कलम की वर्चस्विता को अपनी समय-सीमा में वह कर नहीं पा रहा। प्रेमीजी तक मानते थे । आशा है, इस ओर जिस जैन समाज के लिए तुम खप रहे हो, - दृष्टिपात करेंगे। वह इस पूरी जड़ व्यवस्था का केवल अंग -कुन्दनलाल जैन, दिल्ली नहीं, बल्कि इस जड़त्व की 'जड़' में बैठा है। सर्वथा अनुपम इस जड़त्व को तोड़ने के लिए ज्ञान काफी विशेषांक सचमुच बहुत बड़े अभाव की नहीं, उस ज्ञान को तलवार हो जाना पूर्ति है । सर्वथा अनुपम, महत्त्वपूर्ण, सुन्दर, पड़ेगा। संग्रहणीय । इस श्रेष्ठ एवं अत्युपयोगी विशे___ तुम्हारी यह प्रतिभा, साधना और समय षांक के लिए अन्तर हृदय से सप्रसन्न सादर किसी व्यापक अखिल भारतीय रेज' की शतश: साधुवाद ! . सांस्कृतिक पत्रिका निकालने में लगे, तो -मुनि महेन्द्रकुमार 'कमल', रतलाम तुममें इतनी शक्ति है कि तुम एक सांस्टतिक 'रिनेसाँ'-पुनरुत्थान को लाने को अपूर्व सूझबूझ मशाल खड़ी कर सकते हो। विशेषांक देख-पढ़कर मन आनन्दित मेरी सलाह है कि अब तीर्थंकर' को ही हो गया। सच मानिए, एक-एक अंक आजीवन सदस्यता-शुल्क का मूल्य चुकाता एक व्यापक सांस्कृतिक - आध्यात्मिकसाहित्यिक पत्रिका में परिणत कर दो। है। पत्रकारिता के क्षेत्र में आपकी सूझ-बूझ उसमें विशिष्ट जैन सामग्री को उच्च स्थान : अपूर्व है, आप जैन समाज को वरदान हैं। पर दो तो जैन विद्या अधिक व्यापक बौद्धिक -नेमीचन्द जैन, शिवपुरी (म.प्र.) जगत तक पहुँचेगी और तब यह पत्र अखिल चुम्बकीय आकर्षण भारतीय महत्त्व भी प्राप्त कर सकता है। अन्य लेखन-कार्यों में अत्यधिक व्यस्त -वीरेन्द्रकुमार जैन, बम्बई होने पर भी विशेषांक पढ़ने के लोम को मैं १७४ तीर्थकर : नव. दिस. १९७७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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