Book Title: Tirthankar 1977 11 12
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 145
________________ धर्म : उत्पत्ति और अस्तित्व स्व. पं. 'उदय' जैन धर्म, साधारणतया एक संप्रदाय, पंथ, सामुदायिक मान्यता और सामाजिक व्यवस्था के मानदण्ड के रूप में व्यवहृत होता है । धर्म एक ऐसी व्यवस्था है, जो किसी मानवसमुदाय की कामनाओं की पूर्ति में योग दे सके और तृप्त कर सके । उस-उस समूह की जीवन जीने या व्यवहार-निर्वाह की प्रणाली को भी धर्म कह सकते हैं । और शान्ति और व्यवस्थापूर्वक जीवन-यापन की कला का नाम भी धर्म है। धर्म की अनेक व्याख्याएँ हैं । वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं । जो धारण किया जाता है वह धर्म है। जिससे आत्मा की उन्नति और कल्याण की सिद्धि होती है, वह आचरण-प्रणाली धर्म कहलाती है। ये सब ठीक हैं । धर्म की पारिभाषिक व्याख्याएँ हैं। सभी धर्मों, मान्यताओं एवं विद्वानों की व्याख्याएँ भिन्न-भिन्न हैं। व्यवस्थाएँ पृथक्-पृथक् हैं और पालन-क्रियाएँ अलग-अलग हैं । कई विद्वान् धर्म की उत्पत्ति भय के कारण मानते हैं। कई इच्छित लाभों की प्राप्ति के लिए धर्म का उत्पादन मानते हैं । सामान्यतया विशिष्ट महापुरुषों , अवतारों, अपौरुषेय शक्ति और भगवानों द्वारा प्ररूपित मानव-हितैषी मार्गों के रूप में उत्पन्न धर्म माना गया है ; अर्थात् तीर्थंकर तथा अवतारों ने धर्म की उत्पत्ति की है। ऋषियों, महषियों मसीहाओं, पैगंबरों आदि द्वारा धर्म-प्रवर्तन ऐतिहासिक सत्य है, लेकिन वास्तविकता कुछ और ही है। कहना न होगा कि सभी जीव जीना चाहते हैं। सभी में जिजीविषा है; जहाँ जीने की इच्छा है, वहाँ जीवन है और जीवन विस्तार के दृश्य भी आलोकित हैं। सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई पसंद नहीं करता अतः यह आवश्यक हो गया कि जीने में एक जीव दूसरे जीव को अपना योग दे, सहकार करे। जब यह भावना जीवों में पैदा होती है धर्म के रूप का आविर्भाव होता है । किस तरह जीना और किस प्रकार का सहयोग देना इन विचारों से धर्म की उत्पत्ति का आभास मिलता है। कई विद्वान् कहते हैं कि धर्म तीर्थंकरों और महापुरुषों द्वारा प्रवर्तित है, लेकिन वस्तुस्थिति यह नहीं है। जब जीव का युगल बनता है और युगलों से समाज-रचना होती है ; तब से सहज ही उनको एक-दूसरे के साथ रहने, बसने, उठने, बैठने, सोने, खेलने, कूदने, हंसने, पढ़ने, लिखने एवं उत्कर्ष करने के लिए व्यवस्थाएँ देनी होती हैं । ऐसी व्यवस्थाएँ जो सहभावी सामाजिक जीवन-यापन के शान्तिपूर्ण अवसर दे सके, आगे जाकर धर्म कहलाती हैं। विनय, अहिंसा, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, सत्य, ईमानदारी, चौ. ज. श. अंक १४१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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