Book Title: Tirthankar 1977 11 12
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 138
________________ इस शंका के समाधानार्थ आदरणीय डॉक्टर साहब ने लिखा है कि साधु भी परम्परागत अनादि हैं परन्तु इस आधार पर महामन्त्र के वर्तमान प्रचलित रूप को अनादि मान लेना सही लगता है क्योंकि - (१) कलिंग सम्राट् खारवेल द्वारा निर्मित हाथीगुंफा पर जो लेख है वह पुरातत्त्व, प्राचीनता और इतिहास की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। उस लेख में जो कि ब्राह्मी लिपि में है यह मंत्र केवल निम्नलिखित चौदह अक्षरों में अंकित है, प्रचलित पैंतीस अक्षरों में नहीं : 'नमो अर हंतानं। नमो सब सिधानं।" (जैन सन्देश--छठा शोधांक) शिलालेख में उसके लेखन की तिथि नहीं मिलती; परन्तु इतना स्पष्ट है कि यह शिलालेख ई. पू. दूसरी शताब्दी का है यानी, अब से दो हजार दो सौ वर्ष पुराना। हो सकता है, अन्य कुछ अक्षरों की भाँति इसकी तिथि भी भग्न हो गयी हो। इस मंत्र का इससे पुराना लेख शायद ही अन्यत्र कहीं उपलब्ध हो और यह रूप है भी ऐसा जो अनादि हो सकता है विद्वान् इतिहासकारों की शंका से परे। इसकी लिपि भी प्राचीनतम ब्राह्मी है। (२) मंत्र को इस प्राचीन रूप में आचार्य और उपाध्याय भी जप सकते हैं, जब कि उसके प्रचलित रूप को लेकर प्रश्न यह उठ सकता है कि उच्च पदधारी आचार्य और उपाध्याय अपने से नीचे पदवालों को कैसे नमस्कार करेंगे? इसके अतिरिक्त क्या आचार्य, उपाध्याय अथवा साधु अपने स्वयं को भी नमस्कार करेंगे, क्योंकि 'सव्व' में तो वे स्वयं भी आ जाते हैं। ऐसा लगता है कि मंत्र को प्रचलित वर्तमान रूप कालान्तर में दे दिया गया। इस बात की पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि धीरे-धीरे क्षीण हो रही स्मरणशक्ति के कारण जब श्रुतज्ञान घटने लगा तो तत्कालीन आचार्यों ने जिनवाणी की रक्षार्थ जो भी याद रह गया था, उसे प्राकृत भाषा में शास्त्रबद्ध करा दिया और ईसा बाद निर्वाण संवत् ६८३ में षट्खण्डागम् नाम के सूत्र-ग्रन्थ की रचना की गयी। (जैनधर्म, पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री; पृष्ठ २५६) इस मूल-ग्रन्थ में महामन्त्र णमोकार मंगलाचरण के रूप में प्रचलित पैतीस अक्षरों में सर्वप्रथम पाया जाता है। इससे पूर्व और आदि से यह मन्त्र हाथीगुफा के शिलालेख में अंकित चौदह अक्षरों का ही रहा होगा। शायद इसी आधार पर स्व. डॉ. हीरालालजी ने आचार्य पुष्पदन्त को इस महामन्त्र का आदिकर्ता बता दिया हो। डॉ. हरीन्द्र भूषण जैन के मतानुसार भी श्रत की हो रही विस्मृति से होनेवाली हानि को रोकने के लिए शास्त्रलेखन का कार्य वि. सं. ५१० से पूर्व ही शुरू हो चुका था। (जैन अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास; डॉ. हरीन्द्र भूषण जैन, पृष्ठ ११)। यहाँ एक बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि णमोकार मंत्र के साथ ही आगे बोले जानेवाले चार मंगलों (मंगली) में आचार्य और उपाध्याय का अलग से १३४ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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