Book Title: Tirthankar 1977 11 12
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 133
________________ स्थानक अर्थात् इमारत नहीं, आत्मालय स्थानकवासी शब्द में स्थानक का अर्थ कोई मकान, इमारत या भवन नहीं है वरन् इसका वास्तविक अर्थ है-आत्मा का स्थान । सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्रमय जीवन ही आत्मा का स्थान है, इसमें निवास करने वाला ही स्थानकवासी कहलाता है। उपाध्याय मधुकर मुनि एक समय था जब जैन परम्परा की धारा अक्षुण्ण रूप में समग्र भारत में प्रवाहित थी। श्रमण भगवान् महावीर से लेकर अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी तक यह स्वर्णयुग रहा, तत्पश्चात् जैन परम्परा दो उपधाराओं में विभक्त हो गयो - दिगम्बर, श्वेताम्बर । जैन परम्परा की दिगम्बर धारा का श्रमण संघ विचरणार्थ दक्षिण की ओर चला गया और श्वेताम्बर धारा का श्रमण संघ उत्तर-पश्चिम की ओर विचरण करता रहा । आगम-विहित विधि-विधान के अनुसार मर्यादा-चर्या एवं सुव्यवस्थित साधना के बल पर श्वेताम्बर धारा का संघ सर्वत्र पूजित गौरवान्वित होता रहा । जैनेतर समाज पर भी इस संघ का अच्छा प्रभाव बना रहा । साधु-जीवन को मर्यादाओं को अप्रमत्त सुरक्षित रखते हुए संघ के संत इतस्ततः सुदूरपूर्व विचरण करके जैनधर्म के सिद्धान्तों का प्रचारप्रसार करते रहे । · · · किन्तु एक ऐसा युग भी आया जब समय ने करवट ली, और शिथिलता पनपने लगी। साधना और स्वाध्याय में निरन्तर संलग्न श्रमणवर्ग लोकैषणा की ओर झुकने लगा। वह स्वयं के लिए 'अणगार' शब्द का उपयोग करते हुए भी 'चैत्यवासी' बनने लगे। जिनभक्ति और जिनपूजा के नाम पर द्रव्य एकत्रित कराया जाने लगा। यन्त्र, तन्त्र तथा मन्त्र के माध्यम से वह अपनी पूजा-प्रतिष्ठा बढ़ाने में व्यस्त हो गया। श्रमणों के इस शिथिलाचार से युगयुगों से चली आती साधु-मर्यादा खतरे में पड़ गयी। जैनधर्म के वास्तविक सिद्धान्त तिरोहित होने लगे। इस विषम स्थिति में एक ऐसी क्रान्ति की आवश्यकता थी जो श्रमणों में पुनः शास्त्रसम्मत मर्यादाओं की प्रतिष्ठा करे और उसे अपनी पवित्रता के पुराने परिवेश में लौटाये । धर्मप्राण लोंकाशाह ने इस क्रान्ति का नेतृत्व किया। स्थानकवासी समाज इसी क्रान्ति की देन है। ___ 'स्थानकवासी' नामकरण नया हो सकता है, किन्तु इसमें जो मर्यादा-व्यवस्था है वह शुद्ध सनातन साधु-संस्था का ही सही रूप है; अतः यह असंदिग्ध है कि स्थानकवासी जैन समाज कोई नवीन स्थापना नहीं है अपितु चली आ रही महावीरकालीन साधु-संस्था का ही एक संस्करण है । 'स्थान' शब्द के साथ 'क' प्रत्यय जोड़ने से 'स्थानक' शब्द बनना है; तदनुसार 'स्थानक में जो वास करता है, वह स्थानकवासी है। चौ. ज. श. अंक १२९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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