Book Title: Tirthankar 1977 11 12
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 110
________________ 'सबको अपना मानो, अपने जैसा मानो' अगरचन्द नाहटा स्व. पूज्य चौथमलजी के संपर्क में आने-रहने का मुझे विशेष अवसर नहीं मिला; क्योंकि बीकानेर-क्षेत्र में जवाहरलालजी के संप्रदाय का ही विशेष प्रभाव है। मुझे याद पड़ता है कि संभवतः एक बार वे यहाँ पधारे थे और रांगड़ी चौक के उनके प्रवचन में मैं गया था। उनके एक ग्रन्थ ने मुझे बहुत प्रभावित किया था – 'निर्ग्रन्थ प्रवचन' । इसमें उन्होंने भगवान् महावीर की वाणी का उत्कृष्ट संकलन किया है। यह चुना हुआ और विवेचनात्मक है। यह अपनी व्यापक उपयोगिता के कारण लोकप्रिय भी हुआ । इसके अतिरिक्त उनके अन्य अनेक ग्रन्थ हैं, जिनमें चरित्र-काव्य अधिक हैं। 'दिवाकर दिव्य ज्योति' शीर्षक से उनके प्रवचनों के लगभग २० भाग ब्यावर से प्रकाशित हुए हैं, जिनका संपादन पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल ने किया है। __ जैन मुनियों का संयत और सदाचारपूर्ण जीवन प्रायः सभी को प्रभावित करता है । वे अहिंसा आदि का इतनी सूक्ष्मता और सावधानी से पालन करते हैं कि लोगों को अचम्भा होता है। उनके व्रत-नियम भी कठोर और उदात्त होते हैं; इसीलिए जब भी वे बोलते हैं उनकी वक्तृता में वाक्पटुता की अपेक्षा जीवन ही अधिक छलकता है। एक ओर उनका जीवन को उठानेवाला नैतिक संदेश और दूसरी ओर आदर्श अनुकरणीय जीवन हृदय पर अजब-गज़ब प्रभाव डालते हैं। दिवाकरजी की जीवनी पढ़ने से भी उनकी प्रवचन-शक्ति का बोध होता है। मांस-मदिरा जैसे दुर्व्यसनों में फंसे सैकड़ोंहजारों लोगों ने उनकी जादू-भरी वाणी से प्रभावित होकर सदा के लिए उन्हें छोड़ दिया। यह कोई साधारण बात नहीं है। जैन यदि उनकी ओर आकृष्ट होते हैं तो इतना आश्चर्य नहीं होता, किन्तु जैनेतर जनसाधारण उनके चुम्बकीय आकर्षण से बिंधकर उनकी बात सुनता है, तो आश्चर्य होता है। अनेक राजे-महाराजे उनके चरणों में नतमस्तक हुए और उन्होंने अपनी रियासतों में जीव-हिंसा-निषेध के आदेश जारी किये । उनकी करुणा बड़ी पतितपावनी थी। हज़ारों-लाखों पशु-पक्षियों को उनके प्रवचनों की प्रेरणा से जो जीवन-दान मिला वह अविस्मरणीय है। जीव सभी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। सभी सुख चाहते हैं, दुख न कोई चाहता है न कोई उसकी अगवानी करता है । इस दृष्टि से भगवान् महावीर की वाणी लोक-कल्याणकारी है । इस वाणी का जितना अधिक प्रचार किया जा सके, किया जाना चाहिये । स्व. मुनिश्री चौथमलजी का संपूर्ण जीवन इसी सुकृत्य पर समर्पित था । 'सबको अपना मानो, अपने जैसा मानो' जैन दिवाकरजी के लिए मात्र उपदेश नहीं था, यह उनका जीवन-लक्ष्य था। उन्होंने प्राणिमात्र की जो सेवा की है, उसे कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। हम चिरकाल तक उनके जीवन से, जो स्वयं ही एक दिव्य संदेश है, प्रेरणा लेते रहेंगे। १०६ तीर्थंकर : नव. दिस. १९७७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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