Book Title: Tirthankar 1977 11 12
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 112
________________ प्रवचन-मेघ, जीवन-धरती ईश्वर मुनि जेठ-आषाढ के महीनों में भूमण्डल गर्मी से संतप्त रहता है। सब ओर गरमागरम हवाएँ झुलसती हैं। कृषक भीषण कष्ट सहकर, पसीने से तर-बतर अपने खेतों की सफाई करता है, मुस्कराता है और उल्लास से भरा रहता है। उसकी इस सहिष्णुता का एक ही मर्म है, आकाश में सजल-कजरारे मेघों का घिरने लगना । वह झूम उठता है, उसका मन-मयूर नाच उठता है, और सारा संताप अन्तहीन उल्लास-आह्लाद में बदल जाता है । मेघ सजल' होते हैं, धरती को सींचते हैं, उसे सर्वर-सरस बनाते हैं। बादल और धरती के रिश्ते कितने प्यारे हैं । पृथ्वी बारम्बार सूखती है, उसमें दरारें पड़ जाती हैं; और बादल हर बार पूरी उदारता से बरसते हैं, उसे हराभरा बनाते हैं, और उसे जोड़ देते हैं । यह रूपक मानव-जीवन पर भी लागू हो सकता है। जीवन धरती है, संत पुरुष सजल' मेघ हैं; हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, कपट, अब्रह्मचर्य, परिग्रह इसे सुखाते हैं, इसमें दरार डालते हैं; और संतों की वाणी का अमृत बरस कर इसे सरस, समन्वित और करुणार्द्र बनाती है। वह सारे भेद पाट देती है, और जीवन को नरक नहीं बनने देती। ___ ऐसे ही परम संत पुरुष हुए मुनिश्री चौथमलजी जिन्होंने बादल की भूमिका में बने रहकर अपनी वाणी से इस अभिशप्त धरती को सींचा, अभिषिक्त किया; पतितों, उपेक्षितों को उदारतापूर्वक गले लगाया, और एक नयी उमंग और नयी ज्योति से परिपूर्ण कर दिया। सच, वे वन्दनीय हैं, हम उनकी वन्दना करते हैं। प्रवचन-मौक्तिक 'असत्य के लिए अनन्त-अनन्त बार मरने पर भी कोई सुफल नहीं हुआ, अगर एक बार सत्य के लिए मरूँगा तो सदा के लिए अमर हो जाऊँगा। _ 'जिस आत्मा में मलिनता है उसे परमात्मा नहीं माना जा सकता। राग, द्वेष और मोह से प्रत्येक संसारी आत्मा युक्त है। इन दोषों से पिण्ड छुड़ाने के लिए रागी-द्वेषी देव की उपासना करने से कोई लाभ नहीं है। आत्मा का शाश्वत कल्याण तो वीतराग परमात्मा की आराधना से ही संभव है। 'जो रुपया-पैसा, सोना-चाँदी आदि अचेतन पदार्थों पर और पुत्र-कलत्र, मित्रशिष्य आदि सचेतन पदार्थों पर ममता न रखता हो, जो सबको अपना कुटुम्बी और किसी को भी अपना आत्मीय न समझे, वही गुरु हो सकता है। _ 'अज्ञान को दूर करने का प्रयत्न करना चाहिये। अज्ञान को हटाने के लिए ज्ञानीजनों की उपासना करनी चाहिये, ज्ञान के प्रति भक्ति का भाव होना चाहिये, ज्ञानवानों की संगति करनी चाहिये । __ -मुनि चौथमल १०८ तीर्थकर : नव. दिस. १९७७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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