Book Title: Tirthankar 1977 11 12
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 109
________________ है, ज्ञान-दान भी दान है, बल्कि यही उत्कृष्ट दान है। सर्वोपरि त्याग है अहं का विसर्जन, अन्यों का सन्मान ।' दान का यह भी एक श्रेष्ठ आयाम है। ब्यावर में पांच स्थानकवासी संप्रदायों ने एक संघ की स्थापना की थी। इनके प्रमुखों ने अपनी-अपनी पदवियाँ छोड़कर आचार्य की नियुक्ति की थी। जिन पाँच संप्रदायों का विलय हुआ था उनमें से तीन में पदवियाँ नहीं थीं, दो में थीं। दो संप्रदायों में से भी इस संप्रदाय में पदवियाँ अधिक थीं। अपने प्रतिनिधि के रूप में उन्होंने अपने प्रिय शिष्य उपाध्याय पंडितरत्न श्री प्यारचन्दजी महाराज को भेजते हुए अपना संदेश भेजा कि “पदवी एक ही आचार्य की रखना, अन्य आचार्य-पद नहीं रखना; और यह पदवी श्री आनन्दऋषिजी महाराज को देना। यदि अलग-अलग पदवियाँ दोगे तो त्याग अधूरा रहेगा; अतः त्याग सच्चा और वास्तविक करना।' श्रमण संघ की संघटना के बाद ब्यावर सम्मेलन संपन्न करके जब उपाध्याय श्री प्यारचन्दजी महाराज लौटे तब गुरुदेव ने प्रसन्नता प्रकट की। इस अवसर पर एक साधु ने उनसे कहा- “गुरुदेव ! अपने संप्रदाय की सब पदवियों के त्याग से चार तो यथास्थान बने रहे, हानि अपनी ही हुई।" उत्तर में गुरुदेव ने कहा-"अरे मूढ़! त्याग का भविष्य अतीव उज्ज्वल है। आज का यह बीज कल वटवृक्ष का रूप ग्रहण करेगा। आज का यह बिन्दु कल सिन्धु बनेगा। दृष्टि व्यापक और उदार रखना चाहिये। तेरामेरा क्या समष्टि से बड़ा होता है ? व्यक्ति से समाज बड़ा होता है, और समाज से संघ । संघ के लिए सर्वस्व होमोगे तो कोई परिणाम निकलेगा। पदवी तो इसके आगे बहुत नगण्य है।” मैंने गुरुदेव की उस व्यापक दृष्टि का उस दिन भी आदर किया था, और मैं 'वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ' की स्थापना पर आनन्द-विभोर हुआ था। ___ गुरुदेव की सब से बड़ी विशेषता थी-निर्भीकता। वे कहा करते थे-"जो तन-मन से शुद्ध है, वह सदैव निर्भय है; और वही औरों को भी भयमुक्त कर सकता है। वे सदैव व्यसन, पापाचरण आदि छुड़वाकर निर्भयता का वरदान देते थे। मुझे हमेशा इस बात का अफसोस रहा कि ऐसे महान् धर्मप्रचारक और विश्वमित्र से लोग अकारण ही बैरभाव रखते थे; किन्तु मैंने प्रतिपल अनुभव किया कि उनका हृदय पूरी तरह शान्त और निश्चल था इसीलिए वे प्रतिक्षण अभीत बने रहे। एक दिन उन्हें चिन्तित देख मैंने विनयपूर्वक पूछा'गुरुदेव, आपको चिन्ता।' उन्होंने कहा- 'मुझे अपनी कोई चिन्ता नहीं है। उस ओर से मैं निश्चित हूँ। चिन्ता समाज और संघ की ही मुझे है ।' मैंने पुनः निवेदन किया-'आपने तो बहुतों का उपकार किया है। कई पथभ्रष्टों को उज्ज्वल राह दी है, कइयों को सुधारा है; समाज और संघ के उत्थान के लिए आपने अथक प्रयत्न किया है। आपको तो प्रसन्न और निश्चिन्त रहना चाहिये। आपकी यह प्रसन्नता अन्यों को उबुद्ध करेगी, उनका छल-कपट धोयेगी, उन्हें नयी ऊँचाइयाँ देगी।" मैंने प्रतिपल अनुभव किया कि उनका चारित्र उनकी वाणी थी और वाणी उनका चारित्र था। वे वही बोलते थे जो उनसे होता था, और वही करते थे जिसे वे कह सकते थे। (शेष पृष्ठ ११२ पर) चौ. ज. श. अंक १०५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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