Book Title: Tirthankar 1977 11 12
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 49
________________ जनार्दन ने उन्हें एक नयी ही आलोक-सृष्टि देने के कारण "जैन दिवाकर" कहा, उनकी व्यापक और चुम्बकीय आत्मीयता के कारण उन्हें "जगत्-वल्लभ" से संबोधित किया और सहज-सुगम किन्तु तेजोमय वाणी के कारण "प्रसिद्ध वक्ता" कहकर पुकारा । वस्तुत: वे अक्षर-पुरुष थे, उन्हें वाणी और वर्ण पर विलक्षण प्रभुता प्राप्त थी। वे सरस्वती-पुत्र थे । “निर्ग्रन्थ प्रवचन" उनकी विचक्षण सारस्वत प्रतिभा का एक ज्वलन्त प्रमाण है। व्यथितों-पतितों की सेवा, समन्वय और आध्यात्मिक साधना उनके जीवन के सुविध लक्ष्य थे। वे सचमुच दिवाकर थे। वे सर्वत्र सुन्दर थेनीमच-उदयाचल, ब्यावर-मध्यान्ह, कोटा-अस्ताचल--क्रमशः उनके जीवन की सुबह, दुपहर, शाम ; सभी समन्वय, लोकमंगल और आत्मिक साधना की रोशनी से आलोकित । धर्म जिनके लिए जोड़ना था, तोड़ना नहीं, मैं उस महामनुज का पुनीत स्मरण करती हूँ। - पारसरानी मेहता, इन्दौर गागर में सागर वे गुरुदेव के विचार बहुत उन्नत और प्रगतिशील थे। उनकी कथनी-करनी में तनिक भी अन्तर नहीं था। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण उनका कोटा-वर्षावास था । इसमें दिगम्बर, श्वेताम्बर, सभी सम्प्रदायों और परम्पराओं के आचार्यों और मुनियों का एक ही मंच पर उपस्थित होना एक विलक्षण उपलब्धि थी । सबने प्रवचन दिये और एकता का सुखद वातावरण बनाया। समाज के इस निर्मलीकरण का संपूर्ण श्रेय उन्हें ही है। उनमें असीम गुण थे। वे गागर में सागर थे। उनके जीवन से प्रेरणा प्राप्त कर मैं भी अपना जीवन धन्य और सफल बना सकूँ, यही शुभाकांक्षा रखता हूँ। - रंगमुनि मुझे याद है मुनिश्री चौथमलजी महाराज एकता के अग्रदूत थे। विभिन्न जैन सम्प्रदायों में एकता स्थापित करने के जो प्रयत्न उन्होंने किये, उनके लिए जैन समाज सदैव उनका ऋणी रहेगा । यद्यपि वे आज हमारे बीच नहीं हैं, तथापि उन्होंने एकता का जो संदेश दिया हम उसका पालन करें और एक बने रहें यही उनके प्रति हमारी कृतज्ञता होगी । वे एक अलौकिक पुरुष थे । उनका जीवन महान् था, बहुत पुण्यवान थे। नीमच की एक घटना का स्मरण मुझे है। बात' वि. सं. १९९९ की है। गुरुदेव अपनी शिष्य-मण्डली के साथ नीमच पधारे थे । मैं भी उनके दर्शन-लाभ का लोभ नहीं रोक सका । दर्शनार्थ नीमच गया। वे चौरड़िया गुरुकुल में बिराजमान थे । रात्रि में अपने अनुयायियों को अपनी अमृतवाणी का रसपान कराते रहे । प्रातः काल विहार पर निकले । मैं भी साथ हो गया। चलते-चलते मैंने प्रश्न किया चौ. ज. श. अंक ४५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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