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एक संपूर्ण संत पुरुष
- उन्होंने बड़ी गंभीरता से कहा- 'पाँच सौ घर के सिवाय जो लोग यहाँ बसते हैं,
हरिजन-आदिवासी से लेकर मेवाड़ के महाराणा तक, वे सब हमारे हैं।' । उनके प्रति राजे-महाराजे, ठाकुर-जागीरदार, सेठ-साहुकार जितने अनुरक्त थे, उतने ही निरक्षर किसान, कलाल, खटीक, मोची, हरिजन आदि भी।
- केवल मुनि
'सहस्रेषु च पंडित' की सूक्ति के अनुसार हज़ार में कहीं, कभी एक पंडित होता है; और ज्ञानी तो लाखों में कोई एक विरला ही मिलता है; क्योंकि ज्ञानी ज्ञान की जो लौ ज्योतित' करता है, वह उसकी जीभ पर नहीं होती, जीवन में होती है और कुछ इस विलक्षणता से होती है कि लाख-लाख लोगों का जीवन भी एक अभिनव रोशनी से जगमगा उठता है। भगवान् महावीर के सिद्धान्तानुसार ज्ञानी अहिंसा की जीवन्त मूर्ति होता है। संस्कृत में एक श्लोक है -
अक्रोध वैराग्य जितेन्द्रियत्वं, क्षमा दया सर्वजनप्रियत्वं ।
निर्लोभ दाता भयशोकहर्ता, ज्ञानी नराणां दश लक्षणानि ॥ उक्त श्लोक में ज्ञानी के दस प्रतिनिधि लक्षण गिनाये गये हैं । ये वस्तुतः एक संपूर्ण संत पुरुष के लक्षण हैं। जैन दिवाकर मुनिश्री चौथमलजी संपूर्ण संत पुरुष थे। वे ज्ञान के अथाह, अतल सिन्धु थे। मैं उनका शिष्य रहा हूँ। मैंने उन्हें बहुत निकट से देखा है। मैं जानता हूँ वे किस तरह प्रतिपल समाज के उत्थान में समर्पित थे। वे दिवाकर थे, उन्होंने जहाँ भी, जिसमें भी, जैसा भी अंधियारा मिला, उससे युद्ध किया। अज्ञान का अंधियारा, रूढ़ियों का अंधेरा, दुर्व्यसनों का अंधेरा, छुआछूत और भेदभाव का अंधेरा -- इन सारे अंधेरों से वे जूझे और उनके प्रवचन-सूर्य ने हजारों लोगों के जीवन में रोशनी का खजाना खोला। वे परोपकारी पुरुष थे, उनका जीवन तिल-तिल आत्मोत्थान और समाजोदय में लगा हुआ था।
क्रोध उनमें कम ही देखने में आया। उनके युग में सांप्रदायिकता ने बड़ा वीभत्स रूप धारण कर लिया था। लोग अकारण ही एक दूसरे की निन्दा करते थे, और आपस में दंगा-फसाद करते थे। बात' इस हद तक बढ़ी हुई थी कि लोग उनके गाँव में आने में भी एतराज करते थे; जैसे गाँव उनकी निज की जागीर हो; किन्तु दिवाकरजी ने बड़े शान्त' और समभाव से इन गाँवों में विहार किया। उदयपुर का प्रसंग है। गुरुदेव वहाँ
चौ. ज. श. अंक
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