Book Title: Tirthankar 1977 11 12
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 85
________________ में आगरा में दिवाकरजी के व्याख्यानों प्रभाव के साथ आज एक सघन वटवृक्ष की बड़ी सोहरत थी। आपके प्रभाव से की तरह शान्ति व शीतलता की अनुभूति अनेक लोग जैनधर्म के अनुयायी बने। दे रहा है। ___ मुझे भी उस समय श्री दिवाकरजी मनिश्री चौमुखी व्यक्तित्व के धनी की सेवा करने का अवसर प्राप्त हआ। थे। सरस्वती उनकी वाणी से प्रस्फुटित ऐसे महान् आत्मा की जन्म-शताब्दी होती थी। मानवीय अहिंसा में उनकी मनाना बड़े सौभाग्य की बात है, मैं इसका गाढ़ आस्था थी। अठारह वर्ष की उम्र में स्वागत करता हूँ। यह जानकर और भी उन्होंने मुनि-जीवन स्वीकार किया। प्रसन्नता हुई कि भारत के पाँच नगरों में ५५ वर्षों तक कठिन साधनामय जीवन यह समारोह मनाया जा रहा है वे हैं- बिताया। साधना-काल में जो उपलब्धियाँ इन्दौर, रतलाम, मंदसौर, ब्यावर और प्राप्त होती रहीं, उन्हें वे निरंतर मानवकोटा। यह जानकर भी प्रसन्नता हई कि कल्याण के लिए उपयोग करते रहे। इस अवसर पर तीर्थकर' मासिक पत्र का उन्हें अपने जीवन-काल में ही प्रसिद्धि व विशेषांक निकाला जा रहा है, जिसका प्रतिष्ठा प्राप्त हो गयी थी। उनका प्रभाव सम्पादन डा. नेमीचन्दजी कर रहे हैं। मैं साधारणजन, श्रेष्ठिवर्ग तथा राजहृदय से इस पत्रिका की एवं समारोह की परिवारों पर भी था। मेवाड़ के महाराणा, सफलता चाहता हूँ। देवास नरेश तथा पालनपुर के नवाब आदि -अचलसिंह, आगरा आपके परम भक्त थे। आपकी रचनाएँ उच्च कोटि के साहित्यचौमुखी व्यक्तित्व के धनी कारों के समकक्ष ठहरती हैं। मालवभगवान् महावीर २५०० वीं शताब्दी भूमि में मुनिश्री के रूप में विश्व को अद्भुत में जैन एकता, समन्वय एवं सम्प्रदायों देन दी है। उनकी वाणी आज भी दिवाकर में परस्पर सद्भावना का सुन्दर वाता- की तरह मानव-जीवन को प्रभावित वरण निर्माण हआ। साम्प्रदायिक विद्वेष करती है। इस शताब्दि-वर्ष पर ऐसी अब अतीत काल की बात हो गयी है। महान् आत्मा को भावभीनी श्रद्धांजलि इसका श्रेय उन संतों व सामाजिक कार्य- अर्पित करता हूँ। -पारस जन कर्ताओं को है, जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी एकता का नाद गुंजाये लोकप्रिय क्रान्तिकारी मुनि रखा । ऐसे ही विरल संतों में जैन दिवाकर यह अत्यन्त हर्ष का विषय है कि जैन मुनिश्री चौथमलजी महाराज का नाम दिवाकर पूज्य मुनिश्री चौथमलजी महाराज उल्लेखनीय है। उस समय एक सम्प्रदाय सा. का जन्म शताब्दी-समारोह मनाया जा के साधु दूसरे सम्प्रदाय के साधुओं के रहा है तथा इस पावन प्रसंग पर इन्दौर साथ मेल-मिलाप रखें, ऐसा वातावरण से प्रकाशित 'तीर्थंकर' मासिक का विशेषांक नहीं था। उस समय जैन दिवाकरजी ने प्रकाशित किया जा रहा है। तीर्थंकर' के दिगम्बर आचार्य श्री सूर्यसागरजी तथा मनीषी संपादक डॉ. नेमीचन्द जैन का यह श्वेताम्बर मर्तिपूजक आचार्य श्री आनन्द- प्रयत्न स्तुत्य है। सागरजी के साथ कई सम्मिलित कार्यक्रम किये। उस समय यह बड़े ही दुस्साहस का स्वर्गीय पूज्य मुनिश्री चौथमलजी म. कार्य था। इस प्रकार मुनिश्री के हाथों स्थानकवासी हमाज के एक अत्यन्त लोकएकता का बीजारोपण हो गया, जो काल- प्रिय मुनि रहे हैं। यह सच है कि उनकी चौ. ज. श. अंक ८१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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